Biography of Sri Aurobindo | श्री अरबिंदो घोष

By | September 27, 2023
Biography of Sri Aurobindo
Biography of Sri Aurobindo

Biography of Sri Aurobindo. 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता के एक धनाठ्य परिवार में श्री अरविन्द का जन्म हुआ था। इसके पिता श्री कृष्णाघन घोष कलकत्ता के ख्याति के डॉक्टर थे और पश्चिमी संस्कृति के प्रशंसक थे। इनके घर में नौकर तक अंग्रेजी भाषा बोलते थे परंतु डॉक्टर साहब थे बड़े विनम्र स्वभाव के ऐसे 1 परिवार में श्री अरविन्द का लालन-पालन हुआ।

Summary

NameSri Aurobindo
NicknameAurobindo Ackroyd Ghose, Aurobindo
BirthplaceKolkata, West Bengal
Date of birth15 August 1872, Kolkata
LineageBengali Family
Mother’s nameSwarnalata Devi
Father’s nameShri Krishnaghan Ghosh
Wife’s nameMrinalini Devi
SuccessorHaridas Chaudhuri
Brother & SisterBarindra Kumar Ghosh, Manmohan Ghose, Sarojini Gosh
FounderSri Aurobindo Ashram
ProfessionPolitical and spiritual leaders
Authorthe divine life, Savitri, The Human Cycle, On the Veda
CountryIndia
State territoryWest Bengal
ReligionHindu
The nationalityIndian
LanguageSanskrit, English, Hindi, Greek, French, Italian German, Latin, and Spanish
Death5 December 1950, Puducherry
Death PlacesPuducherry
Life span78 Years
Post categoryBiography of Sri Aurobindo
Biography of Sri Aurobindo

Biography of Sri Aurobindo

श्री अरविन्द की शिक्षा का आरम्भ 1877 में दार्जिलिंग के ‘लोरेटो कान्वेन्ट स्कूल’ से हुआ। यह उस समय का माना हुआ इंग्लिश स्कूल था। दो वर्ष बाद 1879 में इन्हें इनके दोनों भाइयों और बहिन के साथ आगे की शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया। इंग्लैण्ड में श्री अरविन्द की शिक्षा का भार डिवेट सम्पत्ति पर छोड़ा गया। इनसे श्री अरविन्द ने लैटिन भाषा सीखी। 1885 में इन्हें लन्दन के ‘सैन्ट पाल स्कूल’ में प्रवेश लिया। यहां इन्होंने ग्रीक भाषा की शिक्षा ग्रहण की। 1889 में इन्हें कैम्ब्रिज के ‘किंग्स कॉलिज’ की छात्रवृत्ति मिली। इस कॉलिज में इन्होंने फ्रेंच इटेलियन, स्पेनिस और जर्मन भाषाओं की शिक्षा ग्रहण की।

1890 में ये अपने पिता की आज्ञा से उस समय की इण्डियन सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठे और इसमें सफल भी हुए। किन्तु अंग्रेजों की दासता में काम करना इन्हें अच्छा नहीं लगा और ये उसकी घुड़सवारी की परीक्षा में नहीं बैठे। 1893 में श्री अरविन्द भारत लौट आए। भारत वापिस आने पर श्री अरविन्द ने पहले तत्कालीन बड़ौदा राज्य में प्रशासनिक पद पर कार्य किया। इसके पश्चात ये बड़ौदा राज्य के ही ‘स्टेट कॉलिज बड़ौदा’ में फ्रेंच भाषा के प्राध्यापक नियुक्ति हुए। कुछ ही समय पश्चात इन्हें यहां अंग्रेजी भाषा का प्राध्यापक बना दिया गया। आगे चलकर ये इसी कॉलिज के प्राचार्य बने।

Biography of Sri Aurobindo

बड़ौदा में रहते हुए इन्होंने संस्कृत, बंगाली, मराठी और गुजराती भाषाओं का शिक्षा ग्रहण की और इनके साहित्यों के अध्ययन से भारतीय संस्कृति का ज्ञान प्राप्त किया। 1901 में इनका विवाह हो गया, किन्तु इससे इनके अध्ययन, चिन्तन और मनन में जरा भी अन्तर नहीं पड़ा, ये अध्ययन, चिन्तन और मनन में लीन रहते थे। गीता ने इनके जीवन को नया मोड़ दिया। ये एक तरफ भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने और दूसरी तरफ ईश्वर दर्शन के लिए व्याकुल हो उठे। 1906 में इन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े।

श्री अरविन्द घोष का भारत की स्वतंत्रता में क्या योगदान था?

प्रथमतः 1906 में इन्होंने कलकत्ता के ‘राष्ट्रीय विद्यालय’ के प्रधानाचार्य पद का कार्यभार सम्भाला। यह उस समय राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र था । इसी के साथ इन्होंने उस समय के क्रांतिकारी समाचार पत्र ‘वन्देमातरम्’ का सम्पादन किया। 1907 में एक क्रांतिकारी लेख लिखने के कारण इन्हें जेल भेज दिया गया, पर कुछ ही महीने पश्चात छोड़ दिया गया। 1908 में इन्हें एक बम दुर्घटना के साथ जोड़कर जेल भेज दिया गया। इस बार इन्हें जेल के अन्दर एक अद्भुत अनुभूति हुई। इन्हें जेल की हर वस्तु से भगवान् श्री कृष्ण दिखाई दिए और इनके अन्तःकरण में देश और सनातन धर्म की रक्षा का भाव जागृत हुआ। इस बार जेल से बाहर आने के बाद ये और अधिक सक्रिय हो गए।

अंग्रेजों ने इन पर कड़ी निगरानी आरम्भ कर दी और इन्हें परेशान करने लगे। अंग्रेजों से बचने के लिए ये 10 फरवरी, 1910 को चन्द्र नगर पहुंचे। यहां से श्री अरविन्द 4 अप्रैल, 1910 को पांडिचेरी पहुंचे। पांडिचेरी मद्रास से दक्षिण दिशा में 160 किमी. की दूरी पर स्थित एक बन्दरगाही नगर है। यह उस समय फ्रांसीसी शासन में था। श्री अरविन्द के साथ इनके चार युवा साथी भी थे। यहां ये एक मकान किराए पर लेकर उसमें रहने लगे। यहां ये अंग्रेजों के भय से स्वतंत्र थे। ऐसे भयमुक्त वातावरण में श्री अरविन्द ध्यान योग साधना की तरफ उन्मुख हुए। यहां से इनके जीवन का नया अध्याय आरम्भ होता है।

श्री अरविन्द घोष योगी एवं दार्शनिक थे?

श्री अरविन्द घण्टों तक ध्यान योग साधना में मग्न रहने लगे और उनका यह मकान ध्यान योग का केन्द्र बन गया। 29 मार्च, 1914 को एक फ्रांसीसी महिला मीरा रिचार्ड ने श्री अरविन्द से भेंट की और इनकी योग साधना से बड़ी प्रभावित हुई और उन्होंने इस केन्द्र के विकास के लिए खुले हाथों से दान देना शुरू किया। 15 अगस्त, 1914 से श्री अरविन्द ने यहां से ‘एक दार्शनिक पत्रिका ‘आर्य’ का प्रकाशन आरम्भ किया और इसके माध्यम से अपने दार्शनिक विचारों को सामान्य व्यक्तियों तक पहुंचाना शुरू किया।

इससे श्री अरविन्द की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी। 24 अप्रैल, 1920 को यह फ्रांसीसी महिला मीरा रिचार्ड स्थायी रूप से आश्रम में आ गई और आश्रम के कार्यों के सम्पादन में सहायता करने लगीं। उनके आने से यहां शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। तब उनके आवास के लिए कुछ और मकान लेने पड़े और साथ ही उनके खाने-पीने की व्यवस्था करनी पड़ी।

श्री अरविन्द का साधना अनवरत चलता रहा। साधना के साथ-साथ ये लेखन कार्य भी करते रहे और उपदेश भी देते रहे। 1926 में इस आश्रम ने संगठित रूप धारण किया। उसी वर्ष (1926) में 24 नवम्बर के दिन श्री अरविन्द को अपनी साधना का फल प्राप्त हुआ, इन्हें लगा कि इनका अधिकार उस अनन्त शक्ति वाले मन पर है जो भूत, वर्तमान और भविष्य सभी को देख-समझ सकता है। इसके बाद श्री अरविन्द पूरी तरह से एकान्त जीवन व्यतीत करने लगे और साल में मात्र चार दिन जनता के बीच उपस्थित होते थे।

उस समय यह फ्रांसीसी महिला मीरा रिचार्ड श्री मां के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। ये ही श्री अरविन्द के सन्देश आश्रमवासियों को जन-जन तक पहुंचाती थीं। 2 दिसम्बर, 1943 को श्री अरविन्द आश्रम में आश्रम स्कूल की नींव रखी गई और इसमें श्री अरविन्द के शैक्षिक विचारों को मूर्त रूप दिया गया।

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FAQs

Q- श्री अरविन्द घोष कौन थे?

Ans- श्री अरविन्द घोष भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, योगी एवं दार्शनिक थे.

भारत की संस्कृति

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