दोस्तों 1857 क्रांति में भारत के लाखो लोगो ने अपनी प्राणो की आहुति दी थी. उनमे बहुत सी वीरांगनाओ, भारत की स्वतंत्रता सेनानी रानियों महिलाओं (freedom fighter queens of india) ने इस लड़ाई में अपना योगदान दिया था. हम यहाँ चौदह भारतीय स्वतंत्रता सेनानी महिलाएंओ की वो रौचक जानकारी शेयर करने जा रहे है. जिसके बारे में आप अब से पहले अनजान थे. तो दोस्तों चलते है और जानते है. 1857 ईस्वी क्रांति की महान चौदह स्वतंत्रता सेनानी वीरांगनाओ की आश्चर्यजनक जानकारी.
Summary
नाम | 1857 ईस्वी क्रांति |
उपनाम | भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम |
शुरू | 10 मई, 1857 ईस्वी |
स्थान | मेरठ, उत्तर प्रदेश |
खिलाफ | ईस्ट इंडिया कंपनी |
प्रमुख क्रांतिकारी वीरांगना और रानियां | मंगल पांडे, नाना साहब पेशवा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, बहादुर शाह ज़फ़र, अज़ीमुल्लाह खान, तात्या टोपे, बाबू कुंवर सिंह, कुमारी मैना, पीर अली, अमरचंद बांठिया, अवंती बाई लोधी, अजीजन बेगम, स्वामी दयानंद सरस्वती, झलकारी बाई प्रमुख थे |
पोस्ट श्रेणी | Freedom fighter queens of india |
झलकारी बाई का जीवन परिचय
झलकारी बाई कौन थी?. 1857 ईस्वी क्रांति की महान योद्धा लक्मी बाई की एक सैनिक वीरांगना झलकारी बाई झांसी रियासत के एक बहादुर किसान सदोवा सिंह की पुत्री थी. इनका जन्म 22 नवंबर 1835 ईस्वी को झांसी के समीप भोजला गांव में हुआ था. आपकी माता का नाम जमुना देवी था. जिनका अधिकांश समय प्रातः जंगल में ही काम करने में व्यतीत होता था. जंगलों में रहने के कारण ही झलकारी बाई के पिता ने इनको घुड़सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा दिलवाई थी.
जब झलकारी बाई जब बच्ची थी, तब उनकी माता जमुना देवी का देहांत हो गया था. उनके पिता ने उनका पालन पोषण पुत्र की भांति किया था. दूरस्थ गांव में रहने के कारण झलकारी बाई स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकी थी. झलकारी के पिता ने डाकुओं के आतंक और उत्पाद होने होते रहने के कारण उनको शस्त्र संचालन की शिक्षा दी थी ताकि वह समय अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर सकें. 04-अप्रैल-1857 को इस महान बलदानी झलकारी बाई और इनके पति पूरन सिंह ने अंग्रजो से लड़ते-लड़ते अपने प्राण त्याग दिए.
झलकारी बाई का 1857 ईस्वी क्रांति में क्या योगदान था?
झांसी के किले पर अंग्रेजों का आक्रमण और तेज होता जा रहा था उस समय झलकारी बाई ने महारानी लक्ष्मी बाई से निवेदन किया. बाईसा! अब आपको इस किले से किसी भी प्रकार बाहर हो जाना चाहिए. दुश्मन को धोखे में डालने के लिए यह उचित होगा कि आप का वेश धारण करके पहले मैं छोटी सी टुकड़ी लेकर किसी मोर्चे से भागने का वेतन करूंगी. मुझको रानी समझ दुश्मन अपनी पूरी शक्ति मुझे पकड़ने या मारने पर लगा देगा.
इसी बीच दूसरी तरफ आप किले से बाहर हो जाइए शत्रु भ्रम में पड़ जाएगा कि असली महारानी कौन है. स्थिति का लाभ उठाकर आप सुरक्षित स्थान पर पहुंच सकती हैं. और फिर सैन्य संगठन करके अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर सकते हैं. महारानी लक्ष्मीबाई को यह कार्रवाई की योजना पसंद आ गई. वह खुद भी किले के बाहर निकलने की योजना बना रही थी.
अंग्रेजो के मध्य युद्ध?
योजना अनुसार महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने कपड़े और सम्मान झलकारी बाई को दिए और दोनों अलग-अलग द्वार से किले के बाहर निकली। झलकारी बाई ने काम-जाम अधिक पहन रखा था. शत्रु ने उसे ही रानी समझा और उसे ही घेरने का प्रयत्न किया. अंग्रेजी सेना से घिरी झलकारी बाई भयंकरी करने लगी एक भेदिये ने उसे पहचान लिया और उसने भेद खोलने का प्रयास किया.
वह भेद खोले इसके पहले ही झलकारी बाई ने उसे अपनी गोली का निशाना बनाया. दुर्भाग्य से वह गोली अंग्रेज सैनिक को लगी और वह गिर कर मर गया. और वहां पर झलकारी बाई को घेर लिया गया. अंग्रेज सेनापति रोज ने झपटते हुए कहा. तुमने महारानी लक्ष्मीबाई बनकर हम को धोखा दिया है. और महारानी लक्ष्मीबाई को यहां से निकालने में मदद की है. तुमने हमारे एक सैनिक की भी जान भी ली है मैं मार डालूगा.
जनरल रोज ने झलकारी बाई को एक तंबू में कैद कर लिया और उसके बाहर पहरा बिठा दिया. अवसर पाकर झलकारी बाई रात में चुपके से भाग निकली और सुरक्षित किले में जा पहुंची.
वीरांगना झलकारी बाई और उनके पति की मृत्यु कैसे हुई?
अंग्रेजों की कैद से बचकर झलकारी बाई रात को झांसी के किले में पहुंची थी. सुबह होते ही अंग्रेजी गवर्नर रोज ने झांसी के किले पर जोरदार आक्रमण कर दिया. उसने देखा कि झलकारी बाई एक तोपची के पास खड़ी होकर अपनी बंदूक से गोलियों की वर्षा कर रही है. तभी अंग्रेज सेना का एक गोला झलकारी के पास वाले तोपची को लगा. वह तोपची झलकारी बाई का पति पूरन सिंह था.
अपने पति को गिरा हुआ देखकर झलकारी बाई ने तुरंत तो संचालन का मोर्चा संभाल लिया और वह अंग्रेजी सेना को विचलित करने लगी अंग्रेजी सेना भी अपनी सारी शक्ति उसकी लगा दी. इसी समय एक गोला झलकारी बाई को भी लगा. और वह जय भवानी कहती हुए भूमि पर अपने पति के शव के समीप ही गिर पड़ी. 04-अप्रैल-1857 को इस महान बलदानी झलकारी बाई और इनके पति पूरन सिंह ने अंग्रजो से लड़ते-लड़ते अपने प्राण त्याग दिए. वह अपना काम कर चुकी उसका बलिदान इतिहास में अमर रहेगा. झलकारी बाई जैसे अनेक महान योद्धाओ को हम नमन करते हैं.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 16 नवंबर 1835 ईस्वी को काशी में हुआ था. लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु बाई था. वे जब 4 वर्ष की हुई तब उनकी माता चल बसी. आपके पिता मोरोपंत ने बड़े लाड प्यार से अपनी पुत्री का पालन पोषण किया. पेशवा बाजीराव ने मोरोपंत को अपने आश्रितों के परिवार में सम्मिलित करने के लिए कानपुर के बिठूर में आमंत्रित किया. अंत मोरोपंत अपनी 4 वर्षीय पुत्री मनुबाई को लेकर काशी से बिठूर चले गए. मनु बाई (लक्ष्मीबाई) का जन्म गंगा नदी के तट पर मणिकर्णिका घाट पर हुआ था. इसलिए मनुबाई (लक्ष्मीबाई) को दूसरा नाम मणिकर्णिका बाई के नाम भी पुकारते है.
लक्ष्मीबाई के पूर्वजक महाराष्ट्र के सतारा जिले के “बाई” नामक नगर के निवासी थे. उनके दादा का नाम कृष्ण राम तांबे था. जो एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे. उनके पुत्र बलवंत राव थे. जो पेशवा की सेना में सेनानायक के पद पर नियुक्ति थे. रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत इन्ही के सुपुत्र थे.
1857 ईस्वी की क्रांति में रानी लक्ष्मीबाई का क्या योगदान था?
अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी की क्रांति प्रारंभ हो चुकी थी. जिसके कारण भारत के कोने कोने में सिपाही विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी थी. कलकत्ता से दिल्ली के बीच की बड़ी-बड़ी छावनियों के भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था. चारो दिसावो में सिपाहियों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ा जा रहा था. झांसी की रानी के बचपन के साथी नाना साहब ने कानपुर में 4 जून 1857 ईस्वी से ही क्रांति मचा रखी थी. ठीक अगले दिन 05 जून 1857 ईस्वी को ही झांसी के सैनिकों ने भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला शुरू कर दी थी. इस विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे गुरुबख्श. विद्रोही सैनिकों झांसी के किले पर अपना अधिकार कर लिया और अंग्रेजो ने विद्रोहियों के सामने समर्पण कर दिया. विद्रोहियों ने रानी को अपना नेता मान कर लिया और झांसी के किले को उनको सोप दिया.
अब रानी ने क्रांति बाग़ डोर अपने हाथ में ले ली थी. दामोदर राव अभी नाबालिग था. अतः रानी लक्ष्मीबाई ने शासन प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया. और प्रजा की भलाई के कार्य करने लगी. उसने बड़ी योग्यता से शासन का संचालन किया. सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने सेना में भर्ती की और गोला बारूद का निर्माण झांसी में शुरू कर दिया. झांसी के महल पर से कंपनी का झंडा हटा दिया गया.
राजस्थान के प्रमुख लोक देवता और उनके मंदिर
सालासर बालाजी चुरू | रानी सती मंदिर झुंझुनूं |
शाकम्भरी माता | करणी माता मंदिर देशनोक |
बाबा रामदेव जी | देवनारायण जी महाराज |
गोगाजी महाराज | हिंगलाज माता मंदिर बलूचिस्तान |
पाबूजी महाराज का जीवन परिचय | वीर तेजाजी महाराज |
और उसके स्थान पर दिल्ली के बादशाह का झंडा फेरा दिया गया. रानी के अधीन झांसी के साम्राज्य की सीमा यमुना नदी के तट और विंध्याचल तक थी. इस पर रानी का एकछत्र साम्राज्य था रानी के अधीन उनकी प्रजा अपना जीवन सुख शांति से व्यतीत करने लगी. अंग्रेज इस बात को जानते थे की क्रांति का केंद्र झांसी में है. अतः वह रानी को पराजित किए बिना मध्य भारत में साम्राज्य कायम रखना संभव नहीं है. वे रानी लक्ष्मीबाई के बारे में अच्छे से जानते थे. इस लिए अंग्रेजो ने रानी को हराने के लिए व्यवस्थित तैयारी करने लगे.
रानी तेजबाई का जीवन परिचय
दोस्तों भारत की आजादी की लड़ाई लगभग 200 साल तक चलती रही. कुछ लोगों ने खुलकर ब्रिटिश सरकार पर हमला किया. तो कुछ लोगों ने अप्रत्यक्ष रूप से हमला किया. कुछ लोग बिना संघ बनाएं अकेले ही लड़ते रहे. और कुछ लोगों ने अप्रत्यक्ष रूप से छिपकर क्रांतिकारियों के उत्साह और हौसले में वर्दी की थी. रानी तेजबाई एक वीरांगना थी, जो जालौन के राजा गोपाल राव को अंग्रजो द्वारा पद से हटा देने के बाद अंग्रेजो से बदला लेने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से 1857 के संग्राम में भाग लिया था. इस वजह से सरकार द्वारा उन्हें 12 वर्ष का कारावास का दंड दिया गया था.
1857 ईस्वी की क्रांति प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में रानी तेजबाई का क्या योगदान था?
ब्रिटिश सरकार ने अपने राज्य साम्राज्य विस्तार के लिए कमजोर राज्य को पहले अपने अधीन करना प्रारंभ कर दिया था. जालौन का राजा गोपाल राव भी बहुत कमजोर हो गया था अतः कंपनी की सरकार ने 1842 में उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया था. और वहां की रानी को पेंशन दे दी गई थी. जालौन राज्य के हार जाने का रानी को बहुत दुख हुआ. परंतु उसकी शक्ति बहुत सीमित थी. अतः विवश होकर उसे कंपनी सरकार के निर्णय को स्वीकार करना पड़ा. कुछ वर्षों बाद लॉर्ड डलहौजी ने झांसी और सातारा राज्य भी हड़प लिया था.
रानी तेजबाई चुपचाप महल में बैठी रहती. दोस्तों जब 1857 ईसवी में सारे देश में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया. तब तात्या टोपे ने रानी तेजबाई से संपर्क किया. और उनके पुत्र को जालौन का राजा बना दिया. रानी को इसके लिए नाना साहब की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी. ईस्ट इंडिया कंपनी का ध्यान जालौन राज्य की रियासत की ओर गया. रानी तेजबाई ने कमजोर होने के कारण कोई विद्रोह नहीं किया. परंतु उसने अनेक लोगों को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने हेतु प्रेरित किया.
जैतपुर रानी फत्तमवीर का जीवन परिचय
जैतपुर की रानी का नाम फत्तमवीर था, जिन्होंने अपने पति के मृत्यु के बाद अंग्रजो के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ी थी.1803 में महाराजा छत्रसाल के पौत्र पारीक्षत ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का शंखनाद किया था. परीक्षित के बाद जैतपुर की रानी फत्तमवीर ने उनकी इस चिंगारी को ज्वाला बनाने का काम किया. बुंदेलखंड के पूर्वी क्षेत्र में जैतपुर की रानी, जालौन की वीरांगना ताईबाई व झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किए.
अंग्रेजी सरकार ने 27 नवंबर 1842 ईस्वी में जैतपुर पर अधिकार कर अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया था. उस समय जैतपुर पर आजादी के प्रेमी राजा परीक्षित शासन कर रहे थे. उनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी सत्ता को भारत से उखाड़ फेंकना था. पर वह ब्रटिश कंपनी की तुलना में कमजोर थे. अतः कंपनी की सेना ने बहुत आसानी से उन्हें पराजित कर दिया.
1857 ईस्वी की क्रांति में जैतपुर की रानी का क्या योगदान था?
जैतपुर के राजा परीक्षित की मृत्यु के बाद उनकी रानी ने प्रतिज्ञा की कि वे अपने जीवन के अंतिम समय में अंग्रेजों की दासता स्वीकार नहीं करेगी. उन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अन्य राजाओं की भांति विद्रोह किया और अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष प्रारंभ कर दिया. मालवा, बानपुर तथा शाहगढ़ आदि स्थानों पर विद्रोह का झंडा फहरा दिया गया.
1857 की क्रांति के समय रानी को स्थानीय ठाकुरों का भी सहयोग प्राप्त हुआ. उसने उनके सहयोग से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया. और तहसीलदारों के समस्त सुरक्षित कोष पर अधिकार कर लिया था. इस प्रकार जैतपुर की रानी ने अंग्रजो को तंग कर दिया था. और अपना खोया हुआ सम्राज्य प्राप्त किया था. जैतपुर की रानी ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा परंतु, अंत में उन्हें युद्ध के मैदान से भागने के लिए विवश होना पड़ा. जैतपुर की रानी के उत्साह एवं साहस को हम कभी नहीं भुला सकते उन्होंने अपने त्याग और बलिदान के कारण भारतीय इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया.
ज़ीनत महल कौन थी? और उनका जीवन परिचय
अंतिम मुंगल सम्राट बहादुरशाह जफ़र की बेगम थी ज़ीनत महल. और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बेगम जीनत महल में भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया था. यह सही है कि बेगम जीनत महल ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भांति शस्त्र धारण करके युद्ध भूमि में भाग लेकर अंग्रेजों को तलवार के घाट नहीं उतारा था. परन्तु बेगम ज़ीनत महल के चतुर दिमाग ने एक बार तो मुंगलो को भारत में वापस सत्ता में आने का मौका मिल सकता था. और अंग्रजो को सदा सदा के लिए भारत से जाना पड़ सकता था. पर कुछ देश के गद्दारो की वजह से ये काम होते होते रह गया था.
1857 ईस्वी की क्रांति में ज़ीनत महल का क्या योगदान था?
बेगम जीनत महल में आक्रोश था, उसमें सूझबूझ की असाधारण क्षमता विद्वान थी. बेगम ने मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को अत्याचारी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का संचालन एवं उसका नेतृत्व करने की प्रेरणा प्रदान की. मल्लिका ज़ीनत महल मुगल साम्राज्य के अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर की बेगम थी. बेगम में अच्छी शशिका के समस्त गुण विद्वान थे. आजादी के लिए वह बेचैन थी. ब्रिटिश शासन से लोग परेशान हो चुके थे.
इसके विरुद्ध क्रांति का वातावरण तैयार हो चुका था. बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने अपने प्राणों की आहुति देकर क्रांति की अग्नि प्रज्वलित कर दी थी. उसकी लपटे कानपुर, बनारस, अवध, तथा मेरठ तक फैल चुकी थी. ऐसी विकट परिस्थितियों में भी बहुत से राजा महाराजा हाथ पर हाथ धरे बैठे हुए थे. मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर बूढ़े हो चले थे. उनकी शक्ति छिन्न हो चुकी थी. वह शेरो शायरी में डूबे रहते थे. और चाहा कर भी आजादी की लड़ाई में भाग लेने से हीच कीचा रहे थे.
चौहान रानी का जीवन परिचय
1857 ईस्वी क्रांति के समय इंदौर के अनूप नगर पर राजा प्रताप चंडी सिंह शासन कर रहे थे. उनकी पत्नी चौहान रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई. प्रताप चंडी सिंह की मृत्यु के बाद रानी ने अनूप नगर का शासन प्रबंधन अपने हाथों में ले लिया। डलहौजी ने हड़प नीति के आधार पर अन्य राज्यों की भांति अनूपनगर को भी कंपनी के साम्राज्य में मिला लिया था. रानी के लिए यह बात ऐसे नियति परंतु है अवसर की तलाश में थी. जब प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ तब अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर ने इसका नेतृत्व करने का निश्चय किया. उसने भारत के अनेक राजाओं तथा नवाबों को पत्र लिखें और उन्हें क्रांति में भाग लेने हेतु प्रेरित किया.
1857 की क्रांति में वीरांगना चौहान रानी का क्या योगदान था?
चौहान रानी ने मुगल सम्राट बहादुरशाह की ओर से 1857 की लड़ाई में भाग लिया था. और दिल्ली में अंग्रेजो से भयंकर युद्ध हुआ था. रानी पराजय स्वीकार करने वाली महिला ने थी. एक इतिहासकार का मानना है कि रानी ने माई अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी में अपने खोए हुए राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया था. अंग्रेज सिपाही मारे गए उनके राजकोष को लूट लिया गया था. रानी 15 महीने तक अनूपनगर प्रशासन करती रही. पर 1858 के अंत तक अंग्रेजों ने क्रांति को कुछ कुचलने में सफलता प्राप्त कर ली थी. अतः उन्होंने अनूपनगर को पुनः अपने साम्राज्य में मिला लिया था.
अंग्रेजों ने चौहान रानी के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया रानी अपनी जान बचाकर अनूप नगर से भागने के लिए विवश हो गई. इस संबंध में कोई जानकारी नहीं मिलती है. कि अंग्रेजों ने रानी को पेंशन दी थी या नहीं रानी उनसे कोई संधि की थी या नहीं.
वीरांगना चौहान रानी ने अपनी वीरता पूर्ण कार्यों से यह सिद्ध कर दिया था. कि महिलाओं में भी अंग्रेजों से लोहा लेने की शक्ति है. वे केवल मनोरंजन साधन ही नहीं अपितु वीरता साहस एवं उत्साह की भी प्रतीत होती है. चौहान रानी निसंदेह एक ऐसी वीरांगना थी जिसने अपने शौर्य से अंग्रेजों को भी आश्चर्य में डाल दिया था.
वीरांगना रानी ईश्वर कुमारी का जीवन परिचय
राजेश्वरी कुमारी तुलसीपुर के दृग नारायण सिंह की पत्नी थी. आपके पति की मृत्यु अंग्रेजो ने शोषण के कारण जेल में हत्या कर दी थी. अपने पति राजा द्रगराज सिंह की मृत्यु के बाद, ईश्वर कुमारी ने तुलसीपुर राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली. जब सारे देश में 1857 की क्रांति की ज्वाला भड़क उठी तब रानी के कंपनी सरकार का विरोध किया. उसे कंपनी सरकार की तरफ से यह संदेश मिला कि या तो वह सरकार की अधीनता स्वीकार कर ले अन्यथा उसका राज्य हड़प लिया जाएगा. यद्यपि रानी ईश्वर कुमारी के साधन अत्यंत समिति थे तथापि उसने अंग्रेजों से लोहा लेने का निश्चय किया और अंग्रजो अंतिम समय तक लड़ाई करती रही.
तुलसीपुर की रानी ईश्वर कुमारी देवी 1857-1858 ई. के दौरान स्वतंत्रता संग्राम की संयुक्त नेता थीं. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान रानी को नायिका माना जाता था. जब राजा द्रिग नारायण सिंह लखनऊ किले में कैदी थे, तुलसीपुर की रानी सक्रिय रूप से साथ दे रही थी. बहराइच में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ अपने पति और अपने देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए. स्वतंत्रता के लिए उनका योगदान उल्लेखनीय था. उसने स्वतंत्रता बलों की सहायता करने और अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए एक बड़ी ताकत इकट्ठी की थी.
वीरांगना ईश्वर कुमारी 1857 की क्रांति में क्या योगदान था?
1857 ईस्वी तुलसीपुर गोरखपुर उत्तर प्रदेश में एक बहुत ही छोटा जनपद था. इस समय वहां राजा राजा दृग नारायण सिंह शासन कर रहा था. उसने अंग्रेज सरकार के विरोध में आवाज बुलंद की है उसे नजर बंद कर दिया गया जहां उसकी मृत्यु हो गई. उसके बाद तुलसीपुर जनपद की रानी बनी. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने फूट डालो और राज करो नीति के आधार पर शासन का संचालन किया.
उसका शासन अन्याय तथा अत्याचार पर आधारित रहा. हमारे यहां कुछ राजा और नवाब इतने गद्दार थे, कि उन्होंने भ्रष्टाचार तथा अत्याचार का विरोध करने के लिए स्थान पर अंग्रेजों के पक्ष में तथा भारतीयों के विरोध में युद्ध में भाग लिया. इतना ही नहीं ऐसे देशद्रोहियों ने अंग्रेजो के तलवे तक सहलाने प्रारंभ कर दिए थे.
13 जनवरी 1859 ईसवी के एक दस्तावेज के अनुसार 1857 के ग़दर में राजा दृग नारायण सिंह की रानी ने इस अंग्रेजी राज्य के खिलाफ बहुत बड़े पैमाने पर विद्रोह किया था. साही फरमान को मानने से रानी ने इंकार कर दिया इसलिए उसका राज्य छीनकर बलरामपुर राज्य में मिला लिया गया था.
रानी को हथियार डाल देने और अंग्रेजों की सत्ता स्वीकार करने के लिए प्रलोभन दिए गए. तब उनका जप्त किया हुआ राज्य उन्हें वापस लौटाने का आश्वासन भी दिया गया. पर रानी ने आत्मसमर्पण के बजाय बेगम हजरत महल की तरह देश से बाहर निर्वासित जीवन बिताना स्वीकार किया. और अंग्रेजो के खिलाफ खुलकर मैदान में आ गयी थी.
राजस्थान की लक्ष्मी बाई सूजा कँवर का जीवन परिचय
सूजा कंवर का जन्म 1835 ईस्वी के लगभग मारवाड़ राज्य के लाडनू नागौर ठिकाने में हुआ था. उनका परिवार उच्च आदर्शों से परिपूर्ण था. उनके पिता का नाम हनवंत सिंह राजपुरोहित था. जिनके तत्कालीन ठिकानों के ठाकुर बहादुर सिंह जी से अत्यंत घनी संबंध थे. जो कि सूजा कंवर ठाकुर परिवार से थी, उसने बचपन में ही घुड़सवारी, तथा तलवार, तीर तथा बंदूक चलाना सीख लिया था. सुजा कँवर आत्मसम्मान वाली महिला थी. 1854 में उनका विवाह किशनगढ़ रियासत के अधीन बिल्ली गांव के बैजनाथ सिंह राजपुरोहित के साथ हुआ.
1857 की क्रांति में सूजा कँवर क्या योगदान था?
अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी में एक अंग्रेजी सैनिक टुकड़ी ने लाडनूं क्षेत्र में अचानक आक्रमण कर दिया और मारकाट प्रारंभ कर दिया. जब इस बात की जानकारी लाडनूं ठिकाने के ठाकुर बहादुर सिंह को मिली तो वह आश्चर्यचकित रह गए. उनके पास विरोध का सामर्थ्य सेना नहीं थी. ठाकुर बहादुर सिंह अपने विश्व सैनिकों से इस बारे में चर्चा कर रहे थे. कि अचानक पुरुष वेश में घोड़े पर सवार वीरांगना सूजा कंवर राजपुरोहित उनके सामने उपस्थित हो गई. सूजा कंवर के एक हाथ में लमछड़ बंदूक थी. जिसे लहराते हुए सिंह जैसी गर्जना करते हुए उसने कहा कि. ठाकुर साहब! आप हिम्मत रखो जब तक आपकी यह बेटी राजपूत जिंदा है. तब तक अंग्रेज सेना तो क्या उसकी परछाई भी इस ठिकाने को छू नहीं सकती.
सूजा कंवर राजपुरोहित की 1857 क्रांति में अंग्रेजो पर विजय
लाडनू नागौर के ठाकुर ने शीघ्र ही वीरांगना सूजा कंवर राजपुरोहित के नेतृत्व में अंग्रेजों का सामना करने के लिए एक सेना गठित की गई. राहु दरवाजे को मुख्य मोर्चा बनाया गया. अंग्रेजी सेना के लाडनूं पर आक्रमण करने से पूर्व ही वीरांगना सुजा कँवर रणचंडी का रूप धारण करके दुश्मन पर टूट पड़ी. अंग्रेजों को स्वपन में भी ख्याल नहीं था की यहां कोई हमारा सामना कर सकता है. सूजा कंवर और उनके सैनिकों की वीरता को देखकर अंग्रेज आश्चर्यचकित हुए. और अपने प्राण बचाकर भागने के लिए विवश हो गए. इस लड़ाई में लाडनू के कई सैनिक लड़ते हुए शहीद हो गए वीरांगना सुजा राजपुरोहित भी घायल हो गई थी.
पंजाब और लाहौर की अंतिम रानी महारानी जिंदा कौर कौन थी?
मित्रो महारानी जिंदा महाराजा राजा रंजीत सिंह की सबसे छोटी रानी थी. जिसे शेरे-ए- पंजाब के नाम से भी पुकारा जाता है. महारानी जिन्द कौर का जन्म तत्कालीन अविभाजित भारत में पाकिस्तान के गांव चॉढ, जिला सियालकोट, तसील जफरवाल के निवासी जाट सरदार मन्ना सिंह औलख जाट की पुत्री थीं. बीबीसी के अनुसार आपके पिता जी कुत्तों के रखवाले करते थे. दोस्तों कुत्तों के रखवाले की बेटी से उत्तर भारत की सबसे शक्तिशाली महारानी बनने वाली जिन्द कौर की कहानी के किस्से भारत के हर कोने में सुनने को मिलेंगे.
आप सिख साम्राज्य के महाराजा रणजीत सिंह की पत्नी थी. महारानी जिन्द कौर को ‘विद्रोही रानी,’ ‘द मिसालिना ऑफ़ पंजाब’ और ‘द क्वीन मदर’ जैसे नामों से याद किया जाता है. साथ ही आपको रानी जिन्दां’ भी कहा जाता है. वह सिखों के शासनकाल में पंजाब के लाहौर की अंतिम रानी थीं. 1 अगस्त 1863 को महारानी जींद कौर साहिबा का निधन हो गया.
1857 की क्रांति में महारानी जिंदा कौर का क्या योगदान रहा?
1857 की क्रांति के बाद महारानी जिंदा ने एक बार फिर अवसर का लाभ उठाने का निश्चय किया. उन्होंने महाराजा कश्मीर को पत्र लिखा कि नाना साहब एवं बेगम हजरत महल नेपाल में है. अतः वह पंजाब को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए पंजाब पर आक्रमण करें. पर रानी का यह संदेश उन तक नहीं पहुंचा रानी का पत्र बीच में ही पकड़ा गया और लिखावट पहचान में आ गई. दोस्तों इसके बाद अंग्रेजों ने नेपाल के राणा की सहायता से महारानी जिंदा पर कड़े प्रतिबंध लगवा दिए थे.
यह सर्वविदित है की अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब के सिखों ने कोई कोई भाग नहीं लिया था. पर जब हम रानी जिंदा की कहानी का अध्ययन करते हैं तो हमें ऐसे प्रमाण प्राप्त होते हैं कि आंदोलन को तीन और से दबा कर रखा हुआ था. रानी ज़िंदा ने जैसे ही विद्रोह के लिए सिर उठाया अंग्रेजों ने उनकी गतिविधियों पर रोक लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर पंजाब से बहार काशी जेल में भेज दिया.
दिलीप सिंह बालक था अतः वह अंग्रेजों के बस में आ गया और शेर सिंह को छोड़कर अन्य दरबारी प्रलोभन में आकर अंग्रेजों से मिल गए. उन्होंने रानी ज़िंदा के साथ विश्वासघात किया. और रानी के अधिक सौंदर्य के कारण उन पर अवैध संबंधों के आरोप लगाए गए. जिसके कारण इस देशभक्त रानी का चरित्र और कार्य दोनों इतिहास विवाद विषय बन गए.
कुमारी मैना का जीवन परिचय
दोस्तों कुमारी मैना नाना साहब की दत्तक पुत्री थी. कुमारी मैना ने बचपन से ही राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट भरी हुई थी. इसका उत्साह तथा त्याग देखते ही बनता था. प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उसने अपनी अवस्था के अनुकूल भाग लिया. नाना साहब उसकी दृढ़ता और देशभक्ति से भली भाती परिचित थे.
कुमारी मैना 1857 की क्रांति में क्या योगदान दिया?
मित्रों 1857 की क्रांति में हमारे देश की आजादी के लिए पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी अनेक त्याग एवं बलिदान दिए हैं. इनी ललनाओं में से एक थी कुमारी मैना. जिसने अपनी जान तक कुर्बान कर दी पर अंग्रेजों के समक्ष गुप्त राज, क्रांति की योजनाओ को प्रकट नहीं किया. दोस्तों कुमारी मैना को कैद कर के क्रन्तिकारियो की गुप्त सुचना देने के लिए अनेक यातनाए दी पर कभी मुँह नहीं खोला. साथ ही उन्होंने पुरुस्कार और प्रलोभन देकर उनको अपनी तरफ मिलाना चाहा. पर कुमारी मैना टस से मस नहीं हुई. अंत में अंग्रेजो ने नाना की इस दत्तक पुत्री को जिन्दा जलाने का आदेश दिया.
अपने विनाश की बात सुनकर आउट्रम भड़क उठा. और उसने आदेश दिया इस लड़की को पेड़ पर बांधकर मिट्टी का तेल छिड़ककर जिंदा जला दिया जाए. सैनिकों ने तुरंत अपने जनरल की आज्ञा का पालन किया. दोस्तों जब आग की लपेटे उठकर मैना के मुखमंडल को चूमने लगी. तब आउट्रम ने कहा अब भी यदि तुम अपने पिता तथा अन्य क्रांतिकारियों के पते बता दो तो हम तुम्हें मुक्त कर देंगे और उपहार देंगे. कुमारी मैना अविचलित खड़ी रही, आग की लपेटे उठती रही. वह स्वय भी किसी ज्वाला से कम नहीं थी. वह जीते जी अग्नि में झुलस कर मर गई. परंतु उसने क्रांतिकारियों के गुप्त रहस्य के बारे में कुछ नहीं बताया.
बेगम हजरत महल का जीवन परिचय
बेगम हजरत महल के वंश आदि के बारे में कोई प्रमाणिक जानकारी प्राप्त नहीं होती. शादी से पहले आपका नाम मुहम्मदी ख़ानुम था. आपका जन्म फैज़ाबाद, अवध में हुआ था. हजरत महल फैजाबाद की एक नर्तकी थी. जिसे विलासी वाजिदअली शाह अपनी बेगमों की सेवा के लिए लाया था. पर फिर वह उसके प्रति भी प्रेममत्त हो गया. हजरत महल ने अपनी योग्यता से धीरे-धीरे सब बेगमों में अग्रणी स्थान प्राप्त कर लिया. एक अंग्रेज इतिहासकार के अनुसार वह नर्तकी थी. जो बाद में अपने सौंदर्य तथा गुणों के कारण अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम बन गई. नवाब उसे दिलो जान से चाहते थे. लेकिन न केवल सुंदर थी अपितु सद्गुणों का भंडार भी थी. वह एक ईमानदार तथा भद्र महिला थी उसका व्यक्तित्व मोहक तथा आकर्षक था.
दोस्तों 1857 की आजादी की लड़ाई में महारानी लक्ष्मीबाई, अजीजन बेगम, जीनत महल और बेगम हजरत महल ने जो त्याग और बलिदान दिए उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. बेगम हजरत महल 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की एक महान नेत्री थी. दोस्तों हज़रत महल उन कुछ महिलाओं में से एक थीं जिन्होंने 1857 की क्रांति में अंग्रेज़ों को चुनौती दी थी. बाद में उन्होंने नवाब वाजिद अली शाह के साथ निकाह किया और अवध की रानी बनी और नाना साहब और अन्य क्रन्तिकारियो से मिलकर अंग्रेजो से कई बार लड़ाई की थी.
बेगम हजरत महल का 1857 की क्रांति में क्या योगदान दिया?
1857 क्रांति शीघ्र ही अवध, लखनऊ तथा रुहेलखंड में फैल गई. वाजिद अली शाह ने 11 वर्षीय पुत्र को अवैध का नवाब बना दिया गया. राज्य का कार्यभार उसकी मां बेगम हजरत महल देखती थी. 7 जुलाई 1857 से अवध का शासन हजरत महल से संभाल लिया था. बेगम हजरत महल एक योग्य प्रशासक सिद्ध हुई. यद्यपि यह सत्य है कि वह एक रानी लक्ष्मी बाई जैसी बुद्धि मती नहीं थी. और ना ही उसमें रानी जैसा रण कौशल था. तथापि उसने बड़ी तत्परता से शासन संबंधी कार्य करना प्रारंभ कर दिया. उसने हिंदुओं तथा मुसलमानों के लिए एक जैसी नीति बनाई.
और बिना किसी भेदभाव के दोनों ही जातियों के व्यक्तियों को बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त किया. बेगम हजरत महल बहुत चालाक महिला थी. वह अपने सैनिकों के उत्साह में वृद्धि करने के लिए युद्ध भूमि में भी चली जाती थी. लखनऊ में अंग्रेजी सेना जम चुकी थी. उधर क्रांतिकारी उसका सामना करने के लिए तैयार थे. बेगम हाथी पर बैठकर युद्ध देखने गयी. रेजिडेंसी के भीतर हेनरी लॉरेंस युद्ध की संपूर्ण तैयारियां कर चूका था. क्रांतिकारियों की सेना में अनुशासन तथा एकता का अभाव होने के कारण युद्ध में अंग्रेजो को विजय प्राप्त हुई. 4 जुलाई को मृत्यु हेनरी लॉरेंस की मृत्यु हो जाने के कारण उसके स्थान पर नए ब्रिगेडियर जनरल की नियुक्ति की गई.
25 सितंबर को जनरल आउटर्म तथा हेवलॉक की सेना ने रेजिडेंसी पर अधिकार कर लिया. परंतु लखनऊ के अधिकांश भाग पर भी बेगम का अधिकार था. बेगम ने अपनी सेना को जौनपुर तथा आजमगढ़ पर आक्रमण करने का आदेश दिया. इस समय क्रांतिकारियों का मनोबल कमजोर था. और उनमें एकता का भी अभाव था.
महारानी तपस्विनी का जीवन परिचय
महारानी तपस्विनी बाई का झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से निकट का संबंध था. दोस्तों आशा रानी व्योहरा ने इस संबंध में लिखा है. महारानी तपस्विनी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और उनके एक सरदार पेशवा नारायण राव की पुत्री थी. वह एक बाल विधवा थी. उसके बचपन का नाम सुनन्दा था. बचपन से ही राष्ट्रप्रेम की भावना भरी हुई थी. वह विधवा होने पर भी निराशा पूर्ण तरीके से जीवन व्यतीत नहीं करती थी. वह हमेशा ईश्वर की पूजा पाठ करती है, और शस्त्र और शास्त्रों का अभ्यास करती थी. वह धैर्य तथा साहस की प्रतिमूर्ति थी.
सुनन्दा चंडी की उपासक थी. धीरे-धीरे उसमें शक्ति का संचार होता गया वह घुड़सवारी करती थी. उसका शरीर सुडौल सुंदर एवं स्वस्त था. चेहरा क्रांति का प्रतीक था उनके ह्रदय में देश की आजादी की ललक थी. किशोरी सुनन्दा अपने को शेरनी सरकार को हाथी समझती थी. और उसे सम्पात करने पर तुली हुई थी. जैसे शेर हाथियों से नहीं डरता है, वैसे सुनन्दा भी अंग्रेजो से नहीं डरती थी.
महारानी तपस्विनी बाई का 1857 ईस्वी की क्रांति में क्या योगदान था?
अपने पिता नारायण राव की मृत्यु के बाद सुनंदा ने सव्य जागीर की देखभाल करना प्रारंभ कर दिया था. उसने कुछ ने सिपाही भर्ती किए, सुनंदा लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काती थी. और उन्हें क्रांति की प्रेरणा देती थी. जब अंग्रेजों को सुनंदा की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई. तो उन्होंने सुनंदा को एक किले में नजरबंद कर दिया. अंग्रेजी सरकार का मानना था कि इस कार्रवाई से यह महिला शांत हो जाएगी परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ दोस्तों.
अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी की क्रांति का बिगुल जब बजा. तब रानी तपस्विनी ने इस क्रांति में सक्रिय रूप से भाग लिया. उनके प्रभाव के कारण अनेक लोगों ने इस क्रांति में अहम भूमिका निभाई. रानी ने स्वय घोड़े पर चढ़कर युद्ध में भाग लिया. परंतु उसकी छोटी सी सेना अंग्रेजों की विशाल तथा संगठित सेना के समक्ष अधिक समय तक टिक नहीं सकी. इसके अतिरिक्त कुछ भारतीय गद्दारों ने भी उसके साथ विश्वासघात कर दिया था. अंग्रेजी सरकार ने रानी को पकड़ने के लिए कई बार कोसिस करी. परंतु गांव वालों की पूरी मदद से. ब्रिटिश सरकार को अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई.
रानी ने रानी तपस्विनी ने यह महसूस कर लिया था की युद्ध के माध्यम से अंग्रेजों को पराजित करना आसान कार्य नहीं है. अंग्रेजों ने भी 18 सो 58 तक इस क्रांति का दामन थाम लिया था. अतः रानी तपस्विनी नाना साहब के साथ नेपाल चली गई. पर वहां जाकर की रानी शांति से नहीं बैठी. रानी ने वहां अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया. वहां से छिपे रूप में भारतीयों को क्रांति का संदेश भिजवाती थी. और उन्हें विश्वास दिलाती थी कि घबराए नहीं एक दिन अंग्रेजी शासन पूर्ण रूप से नष्ट हो जाएगा.
अवन्ति बाई लोधी की जीवनी
अवंतीबाई लोधी का जन्म पिछड़े वर्ग के लोधी राजपूत समुदाय में 16 अगस्त 1831 को ग्राम मनकेहणी, जिला सिवनी मध्य प्रदेश के एक जमींदार राव जुझार सिंह के यहां हुआ था. अवंतीबाई लोधी की शिक्षा दीक्षा मनकेहणी ग्राम में ही हुई. अपने बचपन में ही आपको तलवारबाजी और घुड़सवारी और युद्ध कौसल के गुण दिए गए.
1857 की क्रांति में अवंती बाई लोधी का योगदान था?
ब्रटिश इंडिया कंपनी के गवर्नर डलहौजी ने हड़प नीति के आधार पर अन्य राज्यों की भांति रामगढ़ के राजा अमानसिंघ सिंह के नाबालिग होने का बहाना बनाकर उसे कंपनी साम्राज्य में मिला लिया. रानी अवंती बाई की इच्छा के विरुद्ध के उनके राज्य के शासक की देखभाल कोर्ट ऑफ बोर्ड के जिम्मे शॉप सौंपा गया. और राज परिवार के लिए पेंशन की राशि निश्चित कर दी गई. रानी अवंती बाई का दिल अंग्रेजों की दुर्गति से दहल उठा था. परंतु वह घायल शेरनी की भांति सही समय की प्रतीक्षा कर रही थी.
अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति प्रारंभ होने से पहले क्रांति के प्रतीक चिन्ह लाल कमल का फूल और चपाती को गांव गांव भेजा गया. कमल और चपाती रामगढ़ भी पहुंची जिसे अवंती बाई ने ले ली. रानी ने क्रांति का संदेश अपने सर जाति के व्यक्तियों एवं अन्य प्रमुख व्यक्तियों के पास कागज की पुड़िया में भिजवाया. प्रत्येक पुड़िया में एक छोटा सा कागज का टुकड़ा और एक शादी चूड़ी थी. कागज पर सन्देश के शब्द इस प्रकार थे. “देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या चूड़ी पहनकर घर में बन्द हो जाओ. तुम्हे घर्म ईमान की सौगंध है, जो इस कागज का सही पता बेरी को दो.
ब्रटिश कंपनी के असंतोष के विरोध 1857 में क्रांतिकी बेड़िया टूटी. इस क्रांति में न केवल सैनिकों ने अपितु अनेक राजा महाराजाओं ने भी भाग लिया. झांसी, सातारा, कानपुर, मेरठ, नीमच आदि स्थानों पर क्रांतिकारियों ने अपने झंडे फेरा दिए. 1857 ईस्वी में जब क्रांति की ज्वाला भड़क उठी तो रानी अवन्ति बाई ने भी क्रांति में सक्रिय भूमिका निभाने का निश्चय किया. उसने सरकार द्वारा नियुक्त मांडला के तहसीलदार को बर्खास्त कर दिया. और शासन व्यवस्था अपने हाथ में ले ली. अब रानी सव्य क्रांति का नेतृत्व करने लगी.
अजीजन बाई कौन थी?
दोस्तों अजीजन बेगम एक प्रसिद्ध नृत्य की थी, उसके सुरीले संगीत एवं नृत्य से हजारों युवक आकर्षित होते थे. धन-संपत्ति कि उसके पास कोई कमी नहीं थी. परंतु सच्चा कलाकार भी सिर्फ रंगारंग रैलियों में ही अपना समय व्यतीत नहीं करता। जैसा कि हम जानते हैं कि भिखारी ठाकुर ने केवल एक प्रसिद्ध लोक नाटक थे. अपितु भोजपुरी भाषा के विख्यात कविता नाटककार भी थे. उन्होंने उन्होंने अपने बेटी वियोग, विदेशिया, विधवा विलाप, भाई विरोध आदि नाटकों के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया. ठीक इसी प्रकार भिखारी समाज सुधारक तथा भगवान भक्त भी थे. इसी प्रकार लेखों को का यह मानना है कि अजीजन बेगम केवल एक साधारण नर्तक ही नहीं थी, बल्कि उसके हृदय में देशभक्ति की भावनाएं हिलोरे मार रही थी.
अजीजन बाई का जीवन परिचय
22 जनवरी सन 1824 मध्य प्रदेश के मालवा राज्य के नगर राजगढ़ में ज़ागीरदार शमशेर सिंह के यहाँ कन्या रत्न का जन्म जो हुआ था. शमशेर सिंह की इकलौती संतान को नाम मिलता है “अजंसा “. समय “अजंसा “ को एक रूपवान कन्या के रूप में ढाल देता है. एक दिन अजंसा अपनी सहेलियों के साथ “हरादेवी “ मंदिर के मेले में घुमने जाती है. और वहाँ से उसे अंग्रेज सिपाही अगवा कर लेते हैं. इस सदमे को शमशेर सिंह झेल नहीं पाते और उनकी जान चली जाती है. कानपुर छावनी में कई दिन तक अजंसा से अपनी हवस शांत करने के बाद गोरे सिपाही उसे कानपुर के लाठी मोहाल में एक कोठे की मालकिन अम्मीज़ान के हाथों बेच देते हैं, और अब अजंसा “अजीजन बाई“ बन जाती है.
जल्द ही अजीजन की शोहरत पुरे राज्य में फ़ैलने लगती है. तबले की थाप पर थिरकती अजीजन सारंगी के स्वरों में तैरने लगती है. महफ़िलें जमने लगती हैं. देह व्यापार के बल पर नहीं केवल अपनी आवाज़ के जादू से अजीजन शोहरत, हवेली , नौकर ,चाकर सब हासिल कर लेती है. ठीक उसी समय अजीजन की शोहरत की तरह ही हिंदुस्तान एक बदलाव की तरफ़ बढ़ रहा होता है.
1857 की क्रांति में अजीजन बाई ने क्या योगदान दिया?
बैरकपुर बंगाल में 10 मई 1857 को क्रांति का बिगुल बज जाता है. ये अलग उत्तरप्रदेश के मेरठ, लखनऊ और कानपूर भी पहुंच जाती है. मेरठ की तवायफें सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी हो जाती हैं. ये सुनने के बाद अजीजन के मन में अंगेजों से बदले के लिए अरसे से दबी चिंगारी आग में बदलने लगती है. कानपुर के क्रांतिकारी भी अपने गुप्त बैठकें आयोजित करते थे. वहां नाना साहब, बाला साहब नाना साहब के भाई, तथा तथा तात्या टोपे क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे. 1 जून 1857 ईस्वी को क्रांतिकारियों की एक गुप्त गुप्त बैठक आयोजित की गई थी. जिसमें समसुद्दीन का नाना साहब, बाला साहब, सूबेदार टीका सिंह, अजीमुल्ला खां के अतिरिक्त अजीजन बेगम ने भी भाग लिया था. गंगाजल की साक्षी लेकर उन सभी ने कसम खाई कि हम भारत में अंग्रेजी सत्ता को समाप्त कर देंगे.
तात्याटोपे से विमर्श के बाद अजीजन अपनी सारी संपत्ति आज़ादी की लड़ाई के लिए नाना साहब को दान कर देती है. और ख़ुद घुंघरू उतार कर तलवार उठा लेती है. नाना साहब अजीजन को अपनी बहन का दर्जा देते हैं. अजीजन अन्य तवायफ़ों के साथ मिल कर एक टोली बनाती है. जिसका नाम मिलता है “मस्तानी टोली“ तात्या टोपे मस्तानी टोली को युद्ध की कला और हथियार चलाने की शिक्षा देते हैं.
दिन में भेष बदल कर अंग्रेजों से मोर्चा लेना और रात में छावनी में मुज़रा करके गुप्त सूचनाएं नाना साहब की सेना तक पहुँचाना अजीजन और उनकी मस्तानी टोली का मुख्य काम था. युद्ध में घायल सैनिकों की सेवा और किले की नाकेबंदी के दौरान सैनिकों को रसद आदि मुहैया करवाने में भी अजीजन और उनकी टोली का बड़ा योगदान रहा.
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FAQs
Ans- 1857 की क्रांति में कुमारी मैना, अजीजन बाई,अवंती बाई लोधी, रानियां, महारानी तपस्विनी बाई, बेगम हजरत महल, महारानी जिंदा कौर, सूजा कंवर राजपुरोहित, वीरांगना ईश्वर कुमारी, वीरांगना चौहान रानी, ज़ीनत महल, जैतपुर रानी फत्तमवीर, रानी तेजबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, वीरांगना झलकारी बाई ने प्रमुख रूप से योगदान दिया था.