Biography of Tatya Tope | तात्या टोपे कौन थे?

By | December 7, 2023
Biography of Tatya Tope
Biography of Tatya Tope

1857 की क्रांति के विद्रोह के समय देश के लिए प्राण देने वाले तथा अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अंतिम समय तक संघर्ष करने वालों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है तात्या टोपे का है. वे वीरता एवं देश प्रेम में वे किसी के पीछे नहीं थे. देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हुए अंत में फांसी पर चढ़ गए थे. उन्होंने अपने हाथों से अपने गले में फांसी का फंदा डालते हुए कहा था. मैं पुराने वस्त्र छोड़कर नए वस्त्र धारण करने जा रहा हूं. मैं अमर हूं मैंने जो कुछ किया अपने देश और मातृभूमि के लिए किया है. हम यहाँ तात्या टोपे की जीवनी (Biography of Tatya Tope) और उनके द्वारा जनचेतना के जो कार्य भारत वर्ष में घूम घुम किये उनका संछिप्त में वर्णन कर रहे है.

तात्या टोपे कौन थे?

तात्या टोपे की वीरता एवं चातुर्य से अंग्रेज हतप्रभ थे. इस कारन मालसन ने उनके संबंध में लिखा है भारत में संकट के उस क्षण में जितने भी सैनिक नेता पैदा हुए उनसे सर्वश्रेष्ठ थे तात्या टोपे. सर जॉर्ज ने उन्हें सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय नेता का है. आधुनिक अंग्रेजी इतिहासकार प्रश्न क्लास स्टेडियम के अनुसार वह विश्व के प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे. कर्नल विरोध में मेजर मीट को एक पत्र में तात्या टोपे के विषय में लिखा था वह महान युद्ध नेता और बहुत ही लाभकारी प्रकृति के थे.

और उनके संगठन क्षमता भी प्रशंसनीय थी श्रीमती हेनरी उनके संबंध में लिखा है. उन्होंने जो अत्याचार किए उनसे हम चाहे जितनी घृणा करें पर उनके सेनानायक तो एमकेएल गुणों का महान योग्यताओं के कारण हम उनका आदर किए बिना नहीं रह सकते. एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है. यदि तात्या टोपे की भांति दो चार और ऐसे महा वीर भारत में होते तो अंग्रेजों का पैर कभी भी भारत की धरती पर नहीं जम सकता था.

https://www.youtube.com/watch?v=3UcxtEcK1I0&t=281s

तात्या टोपे की जीवनी (Biography of Tatya Tope)/तात्या टोपे कौन थे?

आपका जन्म 16-फरवरी-1814 ईस्वी में नासिक के समीप जाबालि में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. आपके पिता का नाम पांडुरंग यवेलकर कर था. जो पेशवा की सेवा में थे. और आपकी माता का नाम मथुरा बाई था. जब पेशवा को अंग्रेजों ने पेंशन देकर बिठूर भेज दिया तो तात्या टोपे भी अपने माता पिता के साथ कानपुर आ गए.

तात्या का मूल नाम रामचंद्र था एवं उनका उपनाम टोपे था जो उनके परिवार की उपाधि थी. टोपे का तात्पर्य कैप्टन के बराबर एक सेनानायक से था. तात्या का पूरा नाम रामचंद्र पांडुरंग तात्या टोपे था. किंतु उन्हें तात्या टोपे के नाम से पुकारा जाता था। इनकी माता मथुरा बाई के निधन के पश्चात इनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया पांडुरंग के 9 संतानों थी. जिसमें दो पहली पत्नी से तथा सात दूसरी पत्नी से थी.

तात्या टोपे लम्बे कद के एक बलिष्ट पुरुष थे. उनका रंग गोरा था एवं चक्रीदार तुरहन पहना करते थे. 1858 ईस्वी में प्रकाशित सरकारी विवरण में उनका होलिया इस प्रकार बताया गया था. वह काले रंग के मझोले कद के और मोटे थे. उनका चेहरा फूला हुआ था उनकी नाक चपटी थी आंखें बड़ी बड़ी थी उनकी छाती पर कुछ काले बाल थे. तथा उनके चेहरे पर चेचक के दाग थे उन्होंने बिठूर में ही नाना साहब के साथ सैनिक शिक्षा प्राप्त की थी. तात्या हिंदी मराठी गुजराती और उर्दू आदि भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे. अंग्रेजी में केवल हस्ताक्षर करने का ज्ञान था.

Biography of Tatya Tope
Biography of Tatya Tope

Summary

नामरामचंद्र पांडुरंग तात्या टोपे | Biography of Tatya Tope
उपनामतात्या टोपे, महाराष्ट्र का शेर
जन्म स्थानयेवला,पटौदा, नासिक महाराष्ट्र
जन्म तारीख16-फरवरी-1814
वंशटोपे ब्राह्मण
माता का नाममथुरा बाई
पिता का नामपांडुरंग यवेलकर
पत्नी का नाम
प्रसिद्धि1857 ईस्वी की क्रांति में लगभग १० हजार अंग्रजो को मारा था, देश में घूम घूम कर गुरिल्ला लड़ाई लड़ी थी
रचना
पेशास्वतंत्रता सेनानी
पुत्र और पुत्री का नाम
गुरु/शिक्षकनाना साहब पेशवा
देशभारत
राज्य छेत्रमहाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश
धर्महिन्दू
भाषा हिंदी, मराठी
राष्ट्रीयताभारतीय
मृत्यु18-अप्रैल-1859 शिवपुरी मध्य प्रदेश
जीवन काल45 वर्ष
पोस्ट श्रेणीBiography of Tatya Tope (तात्या टोपे की जीवनी)
Biography of Tatya Tope

तात्या टोपे 1857 की क्रांति में कैसे कूदे

टोपे एक महान सेना नायक तथा जन जन्मजात प्रतिभा सैनिक था. जिसकी सत्ता से अंग्रेजी भी परेशान हो गए थे. वह पेशवा का निष्ठा वादी कर्तव्य परायण एवं स्वामी भक्त सेनापति था. तात्या टोपे एक जन्मजात सैनिक था. उसकी पहले की कई पीढ़ियां सेना में रही आई थी. तथा देश के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर चुकी थी. पेशवा के साथ तोपे टोपे भी बिठूर चले आए थे. तथा अन्य सामानों के सामान उन्होंने भी यहां अपना एक महल बनवाया था. जिसके खंडर आज भी दिखाई देते हैं. तथा टोपे एक महान कूटनीतिज्ञ थे. नाना साहब एवं राव साहब के सम्मान उन्होंने जल्दबाजी में कोई काम नहीं किया. बल्कि वे सदा सोचते विचार आने के बाद ही कोई काम करते थे. यही कारण था कि क्रांति के प्रारंभ में ही भले ही वे सक्रिय हो किंतु वक्त आने पर उन्होंने अपनी सक्रियता को दर्शाया.

तात्या टोपे का झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और सिंधिया से मिलना?

1854 ईस्वी में जब झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव का यज्ञोपवीत समारोह आयोजित किया था. तब उसमें तात्या टोपे ने भी भाग लिया था. कहा जाता है कि इसी समय 1857 ईसवी के विद्रोह की योजना तैयार की गई थी. क्रांति के प्रमुख नेताओं में से थे. क्या तात्या टोपे ग्वालियर से भी संपर्क था. तथा ग्वालियर पर उनका काफी प्रभाव था. उन्होंने ही ग्वालियर कैंटिंजेंट को क्रांतिकारियों में मिला देने का सुझाव दिया था.

तात्या टोपे ने ग्वालियर राज्य में प्रभाव के संबंध में 1857 की विप्लव के प्रत्यक्षदर्शी विष्णु मह गोडसे ने मानसा प्रवास में विवरण दिया है. इसके अनुसार भाद्रपद सितंबर 1857 का महीना था. जबकि ग्वालियर में गड़बड़ी पैदा हुई थी. और इधर-उधर भागते हुए दिखाई पड़ रहे थे. इस कारण था कि नाना साहब का वकील तात्या टोपे अपने साथ सम्मान सहित ग्वालियर के सैनिक वर्ग को जीतने अथवा अपनी और मिलाने के लिए ग्वालियर आया हुआ था.

बताया जाता है कि तात्या, सिंधिया तथा दिनकर राव दोनों से मिल कर आया था. जिन्होंने उसे हर संभव सहायता देने का वचन दिया था. उसने कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे राज्य को कोई हानि अथवा महाराजा सिंघे को व्यक्तिगत रुप से कोई चोट पहुंचे अगले दिन सिंधिया ने सैनिक दल को चाचा के साथ जाने और राज्य को शांति में एवं विघ्न रहित कर देने की आज्ञा दी थी.

अंग्रेजों की कानपुर पर विजय

जब 1857 की क्रांति प्रारंभ हो गई नाना साहब के राज्याभिषेक किए जाने के बाद अंग्रेज कानपुर की तरफ बढ़ने लगे. तो कानपुर में सेना को संगठित करने का कार्य तात्या टोपे ने संभाला. बिठूर पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने पर नाना साहब ने भागकर उन्नाव जनपद में शरण ली कालपी पर अधिकार कर लिया. उसने ग्वालियर से भी संपर्क बनाए रखा सितंबर में ग्वालियर के सैन्य दल ने जालौन तथा कच्छवागड़ पर अधिकार कर लिया. जगदीशपुर बिहार के कुंवर सिंह भी अपनी सेना के साथ कालपी पहुंच गए थे. तात्या टोपे ने नई बाई को हटाकर उसके स्थान पर उसके पुत्र को गद्दी पर बैठाया कालपी विद्रोहियों का केंद्र बनने लगा.

ग्वालियर के सैनिक दल को रोकने के लिए विंढम ने कानपुर से निकलकर पांडु नदी एवं कालपी के मार्ग के कटने वाले स्थान पर नवम्बर में डेरा डाल दिए. आगे बढ़ते हुए विद्रोहियों एवं अंग्रेजों में संघर्ष हुआ 26 नवंबर को कांति कार्यों को पीछे हटना पड़ा. इसी समय विद्रोही की मुख्य फौज आ पहुंच गई थी. विद्रोहियों ने समस्त घाटी को बंद कर दिया तथा तार की लाइनों को नष्ट कर दिया था. अंग्रेजों को गंगा नदी के पुल पर से सहायता मिलने की आशा थी.

तोपों टोपे की गर्जना सुनकर 28 नवंबर को कॉलिंग कैंपबेल कानपुर की तरफ बढ़ा. तभी उसे विंढम की सहायता का संदेश मिला तथा तत्पश्चात उसकी पराजय का चूंकि क्रांतिकारी नेताओं का पुल नष्ट नहीं कर पाए थे. अंग्रेजों ने शाम को इस पुल को पार कर लिया था. तात्या के सैनिकों ने 4 दिसंबर को इस पुल को नष्ट करने का प्रयत्न किया. किंतु अंग्रेजों ने उनके इस प्र्यतन को विफल कर दिया. कानपुर पर अंग्रेजों का पुणे अधिकार हो गया.

तात्या टोपे और अंग्रेजो के मध्य लड़ाईया

जनवरी 1858 तक कालपी विद्रोहियों का प्रमुख केंद्र बन चुका था. इस समय तक यहां लगभग 5000 सिपाही उपस्थित थे. तथा उनमे एक तो नाना साहब का एक भतीजा भी यमुना के दाएं बाजू पर था. बांदा की सेना भी अपनी तोपों सहित उसके साथ मिल गई थी. विद्रोहियों ने आसपास के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था. तात्या कालपी के अंदर बहुत अधिक मात्रा में गोला-बारूद इकट्ठा कर लिया था. तथा सैकड़ों सैनिक इकट्ठे कर लिए थे.

चरखारी की विजय

क्रांतिकारियों के कालपी में एकत्रित होने के बाद अंग्रेजो ने उन पर आक्रमण करने हेतु एक सेना भेजी. किंतु आक्रमण विफल रहा 1 मार्च 1858 ईस्वी को दाता ने बांदा एवं राहतगढ़ के नवाब की मदद से चरखारी पर अधिकार कर लिया विजय की खबर निम्नलिखित पत्र द्वारा राव साहब को भेजी गई थी. फाल्गुन बदी द्वितीय शुक्रवार को चरखारी में एक लड़ाई लड़ी गई राज श्री रामचंद्र पांडुरंग तो टोपे ने आक्रमण किया और इस तिथि को विजय प्राप्त की इस विजय के उपलक्ष में 22 तोपों की सलामी दागी गई इस खुशी के अवसर पर आपसे भी सलामी दागने की आशा की जाती है.

चरखारी की विजय तात्या के उत्कृष्ट सेनानायक का परिणाम थी. जे एच् कोर्न ने ने गवर्नर जनरल को भेजे गए पत्र पर लिखा था. शत्रु ने समस्त कार्य बड़े सुव्यवस्थित ढंग से किए उनके पास थके लोगों के स्थान ग्रहण करने के लिए दल भी थे. जब कुछ युद्ध करते तो दूसरे विश्राम करते हैं जब एक दल जाते हुए दिखलाई पड़ता. तो दूसरा उनका साथ लेने के लिए आते हुए दिखलाई पड़ता. युद्ध के चलते रहने के समय भी उनके पास अस्पताल की टोलियां थी. और बड़े सुव्यवस्थित बाजार से जो सामग्रियों से ओतप्रोत थे. संक्षेप में उन्हें युद्ध भूमि की समस्त कार्यशील शक्ति प्रदर्शित की.

तात्या टोपे द्वारा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सहायता

चरखारी के गढ़ से तात्या को को 24 टोपे और 300000 लाख रूपए मिला. इस पर अंग्रेज सेनापति ने चिंतित होकर वह हुमरोज को चरखारी पर अधिकार करने का आदेश दिया. किन्तु हुमरोज इसे अनावश्यक मानते हुए इस पर ध्यान नहीं दिया. अब तात्या कालपी पहुंच कर एक विशाल सेना तैयार की. हुमरोज के झांसी के निकट पहुंच जाने पर रानी ने तात्या टोपे से सहायता मांगी तात्या ने 22000 सैनिकों तथा 28 तोपों के साथ झांसी की तरफ प्रस्थान किया एवं 30 मार्च को बरवा सागर पहुंच गया.

तात्या टोपे ने अपनी विशाल सेना को दो भागों में बांटा, इन दोनों सेनाओं के बीच में एक जंगल था. अंग्रेजों ने इस विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष किया तात्या टोपे की इस सेना की प्रथम पंक्ति प्राजित हो गई. उसने भागते हुए जंगल में आग लगा दी. किंतु अंग्रेजों ने पार करते हुए विद्रोहियों सेना पर हमला कर दिया. क्रांतिकारियों की तोपों को अंग्रेजों ने छीन लिया क्रांतिकारी बेतवा नदी को पार कर कालपी भाग गए. अंग्रेजों की इस विजय के बाद उनके हौसले बढ़ गए तथा अब उन्होंने पूरी ताकत के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया.

तात्या की सेना झांसी की रानी की सहायता के लिए तथा ने विशाल सेना के साथ अंग्रेजों से संघर्ष किया था. किंतु विफल रहा झांसी की रानी के पास इतनी सैन्य शक्ति नहीं थी. कि वह अकेली अंग्रेजों का मुकाबला कर पाती. इसके विपरीत हूं रोज को निरंतर दक्षिण से सैनिक सहायता मिल रही थी. इसके बाद भी रानी ने जमकर संघर्ष किया किंतु 4 अप्रैल 1858 ईस्वी को उसे झांसी छोड़कर कालपी आना पड़ा.

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की ग्वालियर विजय

तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की झांसी की हार के बाद दोनों की सेना कालपी भाग गई थी. इस हार के कारण तात्या की सेना में निराशा फैल गई. अंग्रजो के कालपी पहुंचने के सात और आठ दिन बाद भी टोपे का कोई पता नहीं था. किन्तु कालपी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. उसके बाद रानी लक्ष्मीबाई, राव साहब, बांदा के नवाब आदि ने ग्वालियर पर आक्रमण किया तो उनको ग्वालियर का अधिकार करने में तात्या ने पूर्ण सहयोग दिया था.

7 मई 1857 ईसवी को अंग्रेजी गवर्नर हूरोज ने कोंच पर आक्रमण कर दिया. वहां के विद्रोहियों ने वीरता पूर्वक अंग्रेजों का मुकाबला किया किंतु वे अंग्रेजों की विशाल सेना के सामने टिक न सके. अंत में जैसे ही अंग्रेजों का कोच पर अधिकार हुआ विद्रोही सैनिक वहां से प्रस्थान कर गए.

राजा मानसिंह द्वारा तात्या टोपे के साथ गद्दारी

तात्या टोपे द्वारा लगातार चकमा किए जाने से अंग्रेज परेशान हो गए थे. अंग्रेज जनरल मेजर मीड ने तात्या को बंदी बनाने के लिए राजा मानसिंह के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचा. राजा मानसिंह तात्या टोपे का पुराना साथी था. किंतु वह इनाम के लालच में तात्या टोपे को बंदी बनाने के षड्यंत्र में अंग्रेजों का साथ देने के लिए तैयार हो गया था. सर आर हैमिल्टन ने मानसिंह को 19000 हजार रुपये वार्षिक पेंसन देने का वचन दिया था.

इसके बाद राजा मान सिंह ने अपनी सेनाओं के बदले में शाहाबाद बावरिया प्राचीन नरवाड़ राज्य का कोई भाग देने की मांग की. अंग्रेजो इसे टाल दिया इन शर्तो के बाद मानसिंह चंद रुपए के लालच में अपने ईमान को बेच कर अपने पुराने मित्र तथा को फसाने के षड्यंत्र में अंग्रेजों का साथ देने को तैयार हो गया. निश्चित योजना के अनुसार राजा मानसिंह में अगले दिन शाम को 3:00 से 5:00 के बीच में तात्या से मिला मिलने से पूर्व उसने एक वृक्ष की पोल के पीछे कुछ सैनिकों को आक्रमण के लिए छुपा दिया था. यह तात्या टोपे के आने से पहले ही कर दिया गया था.

मानसिंह बड़े प्रेम के साथ तात्या से मिला तथा उसने उसे लंबी बातचीत की तात्या के साथ उसके दो सहायक थे. जैसे ही तात्या टोपे गहरी नींद में सोया मानसिंह भागकर उस स्थान पर गया जहां सिपाही छुपे हुए थे. सिपाहियों को लेकर राजा मान सिंह उसी स्थान पर ले गया जहां तात्या टोपे सो रहा था. कुछ संघर्ष के पश्चात तात्या टोपे को और उसके सहायकों को बंदी बना लिया गया.

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FAQs

Q- 1857 की क्रांति में ग्वालियर के राजा सिंधिया परिवार ने किस का साथ दिया था?

Ans- 1857 की क्रांति में ग्वालियर के सिंधिया परिवार ने अंग्रेजों का साथ दिया था.

Q- तात्या टोपे किस की गद्दारी से अंग्रेजों की कैद में आये?

Ans- आमेर जयपुर के राजा मान सिंह की ग़द्दारी के कारण अंग्रेजो की कैद में आये और 18 अप्रैल 1859 उनको फ़ासी हो गयी थी.

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