दोस्तों प्लासी का पहला युद्ध 23 जून 1757 को बंगाल के नवाब सिराज़ुद्दौला और अंग्रजो के मध्य बंगाल के मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में भागीरथी नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक स्थान में हुआ था. प्लासी के इस युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया की और से रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नवाब सिराज़ुद्दौला को हरा दिया था. दोस्तों प्लासी के युद्ध बाद भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना हुई थी. और 1849 ईस्वी तक अंग्रेजों ने संपूर्ण भारत पर विजय प्राप्त कर ली थी. अंग्रेजों ने फुट डालो और राज करो की नीति को आधार बनाकर भारत में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया था. इसके बाद अंग्रेज इस देश की सैन्य शक्ति और आर्थिक साधनों का प्रयोग अपने साम्राज्य के प्रसार के लिए करते रहे. देश के कोने कोने से जब 1857 की क्रांति (1857 ki kranti) चेतना जगी तब लाखो लोगो ने अपना बलिदान दिया.
दोस्तों हम यहाँ 1857 ईस्वी क्रांति की वो रोचक जानकारी शेयर करने जा रहे है. जिसके बारे में आप अब से पहले अनजान थे. दोस्तों जिस किसी व्यक्ति या महिला में देश प्रेम एवं देश के लिए मर मिटने की तमन्ना होती है. वह वेरण्य होता है जिसमे ऐसी भावना नहीं होती. उसे हम देशद्रोही की संज्ञा देते है. और उसके दर्शन करना भी पाप की श्रेणी में आता है.
प्रथम भारतीय स्वतंत्रता का बिगुल बजाने वाले प्रथम बलिदानी मंगल पांडे एक साधारण सिपाही थे. मंगल पांडे 1857 स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद थे. जिन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों पर पहली गोली चलाई थी. मंगल पांडे गोली चलाने के परिणामों के बारे में अच्छी तरह जानते थे. किंतु वह दास्तां की पीड़ा से इतने व्याकुल हो चुके थे कि मृत्यु तथा फांसी कब है उनके दिल से निकल चुका था.
1857 की क्रांति के मुख्य कारण क्या थे?
जब ब्रिटिश सरकार ने 19वीं रेजीमेंट को गाय और सुअर की चर्बी के कारतूस प्रयोग करने का आदेश दिया. जिसको सैनिकों ने मानने से इनकार कर दिया. इस अवसर पर सिपाहियों ने स्पष्ट रूप से कहाँ जरूरत पड़ी तो. हम तलवार भाले भी ही उठा लेंगे पर गाय और सुअर की चर्बी युक्त कारतूस का प्रयोग नहीं करेंगे. परिणाम स्वरूप अंग्रेजो के लिए भारतीय सैनिकों में असंतोष की भावना बढ़ती गयी. इसके आलावा अंग्रेज भारत के देसी राजा के राज्य अधिकार कम कर दिए थे. उनको पेंसन देकर उनके राज्य अधिकार खत्म कर दिए थे. साथ ही आम जनता के साथ दिनों दिन अंग्रजो के अत्याचार बढ़ते ही जा रहे थे. इन सब का परिणाम 1857 ईस्वी में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नीव पड़ी थी.
1857 ईस्वी क्रांति के क्या परिणाम रहे?
भारत की आज़ादी के लिए अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया जो असफल रहा. इस संघर्ष में जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृत की और अंग्रेजों को भी भयभीत कर दिया. इस स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों का जीवन चलता के लिए प्रेरणादायक बन गया. दूसरे शब्दों में इस स्वतंत्रता संग्राम में आजादी के पूर्व भी और आगे भी शताब्दियो तक प्रेरणा देता रहेगा.
Summary
नाम | 1857 ईस्वी क्रांति |
उपनाम | भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम |
शुरू | 10 मई, 1857 ईस्वी |
स्थान | मेरठ, उत्तर प्रदेश |
खिलाफ | ईस्ट इंडिया कंपनी |
प्रमुख क्रांति करि | मंगल पांडे, नाना साहब पेशवा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, बहादुर शाह ज़फ़र, अज़ीमुल्लाह खान, तात्या टोपे, बाबू कुंवर सिंह, कुमारी मैना, पीर अली, अमरचंद बांठिया, अवंती बाई लोधी, अजीजन बेगम, स्वामी दयानंद सरस्वती, झलकारी बाई प्रमुख थे |
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के महान क्रांतिकारी और उनकी रोचक जानकारी
मंगल पांडे कौन थे? 1857 ईस्वी की क्रांति में क्या योगदान था?
मंगल पांडे1857 स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद थे. जिन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों पर पहली गोली चलाई थी. मंगल पांडे एक महान योद्धा थे, जिन्होंने 1857 की क्रांति का बिगुल फुका था. और इस भारत की आजादी के लिए पहली फांसी इनको ही लगी थी. मंगल पांडे अंग्रजो की सेना में एक साधारण से सिपाही थे. जिनके मन में देश के लिए मर मिटने की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी.
मंगल पांडे उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के गांव नगवा के रहने वाले सरयूपारी ब्राह्मण थे. उनके माता-पिता साधारण परिवार के थे. आपकी माता जी का नाम अभय रानी तथा पिता जी का नाम श्री दिवाकर पांडे था. मंगल पांडे अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे साधारण हिंदी भाषा जानते थे. युवावस्था प्रारंभ होते ही वे अंग्रेजी सेना में भर्ती हो गए थे. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय मंगल पांडे कोलकाता के बैरकपुर की 19वीं बटालियन में एक साधारण सिपाही थे. वह बड़े साहसी हंसमुख एवं देश भक्त थे. उनके मित्र उन से इतने प्रभावित थे, कि वे उनके लिए कुछ भी करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे.
दोस्तों वर्तमान कलकत्ता से लगभग 16 मील दूर बैरकपुर एक शाँत सैनिक छावनी में मंगल पांडे ने 1857 की क्रांति की पहली गोली अंग्रजो पर चलाई थी. और यही से 1857 की क्रांति का बिगुल बजा था. जल्दी हे ये क्रांति मेरठ, कानपूर, राजस्थान, मध्य प्रदेश होते हुए पुरे देश में फेल गयी थी.
नाना साहब पेशवा कौन थे? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
पेशवा नाना साहब भारतीय स्वतंत्रता के महान अमर सेनानी थे. नाना साहब पेशवा भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सूत्रधार थे. नाना साहब ने 1857 ईस्वी क्रांति के प्रमुख नारा और स्लोगन “कमल का फूल, और चपाती” देश के कोने कोने में भिजवाये थे. नाना साहब का जन्म 19-मई-1824 ईस्वी में पूना के समीप एक गांव में हुआ था. आपके पिता जी का नाम नारायणराव भट्ट और आपकी माता जी का नाम गंगा बाई था. नाना साहब के एक बड़ा भाई था जिनका नाम था.
दोस्तों नाना साहब पेशवा को अंग्रेजो ने पेंसन देने से इंकार करना और सुवर और गाय की चमड़ी से बनी कारतूस का उपयोग ही 1857 ईस्वी की क्रांति में आग में घी डालने वाला काम किया था. नाना साहब और अजीमुल्ला खां भारत की आजादी के लिए एक तीर्थयात्री के रूप में पुरे भारत में क्रांति की अलख जगाई. वे भारत की बड़ी-बड़ी रियासतो और बड़ी-बड़ी सैनिक छावनियों में भी गए और सैनको को विद्रोह के लिए तैयार किया और 31 मई 1857 को देश में एक साथ अग्रेजो के खिलाफ विद्रोह करने का निर्णय लिया. लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, 29 मार्च 1857 ईस्वी को क्रांति एक महीने पहले ही कोलकाता की बैरकपुर छावनी के सैनिक मंगल पांडेय ने अंग्रेजो को गोली मार कर क्रांति का आगाज कर दिया था.
नाना साहब और अजीमुल्ला खां देश के कोने कोने में अंग्रजो के खिलाफ जहर भर दिया था. सब 31 मई का इन्तजार कर रहे थे. दोस्तों भारत की आजादी की इस पहली लड़ाई में लाखो लोगो ने क़ुरबानी और इतने लोग प्रचार में लगे थे. 1857 की क्रांति तय समय से पहले प्रारम्भ हो चुकी थी. बिठूर और उनके आस पास नाना साहब ने मोर्चा सम्भाल लिया.
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई कौन थी? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 16 नवंबर 1835 ईस्वी को काशी में हुआ था. लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु बाई था. वे जब 4 वर्ष की हुई तब उनकी माता चल बसी. आपके पिता मोरोपंत ने बड़े लाड प्यार से अपनी पुत्री का पालन पोषण किया. पेशवा बाजीराव ने मोरोपंत को अपने आश्रितों के परिवार में सम्मिलित करने के लिए कानपुर के बिठूर में आमंत्रित किया. अंत मोरोपंत अपनी 4 वर्षीय पुत्री मनुबाई को लेकर काशी से बिठूर चले गए. मनु बाई (लक्ष्मीबाई) का जन्म गंगा नदी के तट पर मणिकर्णिका घाट पर हुआ था. इसलिए मनुबाई (लक्ष्मीबाई) को दूसरा नाम मणिकर्णिका बाई के नाम भी पुकारते है.
लक्ष्मीबाई के पूर्वजक महाराष्ट्र के सतारा जिले के “बाई” नामक नगर के निवासी थे. उनके दादा का नाम कृष्ण राम तांबे था. जो एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे. उनके पुत्र बलवंत राव थे. जो पेशवा की सेना में सेनानायक के पद पर नियुक्ति थे. रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत इन्ही के सुपुत्र थे.
1857 की क्रांति में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का योगदान
05 जून 1857 ईस्वी (1857 ki Kranti) को ही झांसी के सैनिकों ने भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला शुरू कर दी थी. इस विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे गुरुबख्श. विद्रोही सैनिकों झांसी के किले पर अपना अधिकार कर लिया और अंग्रेजो ने विद्रोहियों के सामने समर्पण कर दिया. विद्रोहियों ने रानी को अपना नेता मान कर लिया और झांसी के किले को उनको सोप दिया. अब रानी ने क्रांति बाग़ डोर अपने हाथ में ले ली थी. दामोदर राव अभी नाबालिग था. अतः रानी लक्ष्मीबाई ने शासन प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया. और प्रजा की भलाई के कार्य करने लगी. उसने बड़ी योग्यता से शासन का संचालन किया.
सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने सेना में भर्ती की और गोला बारूद का निर्माण झांसी में शुरू कर दिया. झांसी के महल पर से कंपनी का झंडा हटा दिया गया. और उसके स्थान पर दिल्ली के बादशाह का झंडा फेरा दिया गया. रानी के अधीन झांसी के साम्राज्य की सीमा यमुना नदी के तट और विंध्याचल तक थी. इस पर रानी का एकछत्र साम्राज्य था रानी के अधीन उनकी प्रजा अपना जीवन सुख शांति से व्यतीत करने लगी.
बहादुर शाह ज़फ़र कौन थे? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
दोस्तों बहादुर शाह जफर अंतिम मुगल सम्राट थे. बहादुर शाह ज़फ़र के वालिद का नाम अकबर शाह द्वितीय और माँ का नाम लालबाई था. बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्टूबर 1775 ईस्वी में दिल्ली के लाल किले में हुआ था. अपने पिता अकबर शाह द्वितीय की मृत्यु के बाद 28 सितंबर, 1837 में वे दिल्ली के सिंहासन पर बैठे थे. और अंत में वे अंतिम मुगल बादशाह साबित हुए. दोस्तों ये तो एक किस्मत की बात थी, कि जब बहादुर शाह जफर मुगल सम्राट बने. उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी. और मुगल बादशाह नाममात्र का सम्राट रह गया था. जिसका भरपूर फायदा अंग्रेजो ने उठाया था.
1857 की क्रांति में बहादुर शाह ज़फ़र क्या योगदान था?
बहादुर शाह ज़फ़र अंग्रेजों से घृणा करता था. और उन को देश से बाहर निकालने के लिए तुला हुआ था. उसने सारे देश के लोगों से संपर्क करके यह निश्चित कर लिया, कि 31 मई 1857 (1857 ki Kranti) को सारे देश की जनता राजा महाराजा एवं नवाब एक साथ अंग्रेजों पर आक्रमण करेंगे और उन्हें भारत से बाहर निकाल देंगे. यह योजना पूर्ण नियोजित तथा संगठित थी, कमल का फूल तथा चपाती क्रांति के चिन्ह घोषित किए गए. इसके कारण प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हो गया. बहादुर शाह तथा बेगम जीनत महल ने इन समय क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया. इस संग्राम में हिंदू और मुसलमानों की ने कंधे से कंधा मिलाकर भाग लिया यह संग्राम राष्ट्रीय एकता का सबसे बड़ा उदाहरण था.
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अज़ीमुल्लाह खान कौन थे? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
अज़ीमुल्ला खाँ 1857 की क्रांति (1857 ki Kranti) के प्रमुख सूत्रधार थे. लाल खिलता हुआ कमल और चपाती स्लोगन इन्होने और नाना साहब जी ने दिया माना जाता है. जो 1857 की क्रांति का एक प्रमुख स्लोगन था. आपका का जन्म सन 1820 में कानपुर शहर से सटी अंग्रेज़ी छावनी के परेड मैदान के समीप पटकापुर में हुआ था. आपके पिता जी पैसे से मिस्त्री थे. आपके पिता जी का नाम नजीब खान और माता जी का नाम करीमन था. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और परिवार गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहा था. सैन्य छावनी व परेड मैदान से एकदम नजदीक होने के कारण अज़ीमुल्लाह खाँ का परिवार अंग्रेज़ सैनिकों द्वारा हिन्दुस्तानियों के प्रति किए जाने वाले दुर्व्यवहारों का चश्मदीद गवाह और भुक्त भोगी भी था.
तात्या टोपे कौन थे? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
आपका जन्म 1814 ईस्वी में नासिक के समीप जाबालि में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. आपके पिता का नाम पांडुरंग यवेलकर कर था. जो पेशवा की सेवा में थे. और आपकी माता का नाम मथुरा बाई था. जब पेशवा को अंग्रेजों ने पेंशन देकर बिठूर भेज दिया तो तात्या भी अपने माता पिता के साथ कानपुर आ गए.
तात्या का मूल नाम रामचंद्र था, एवं उनका उपनाम टोपे था जो उनके परिवार की उपाधि थी. टोपे का तात्पर्य कैप्टन के बराबर एक सेनानायक से था. तात्या का पूरा नाम रामचंद्र पांडुरंग तात्या टोपे था. किंतु उन्हें तात्या टोपे के नाम से पुकारा जाता था. इनकी माता मथुरा बाई के निधन के पश्चात इनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया पांडुरंग के 9 संतानों थी. जिसमें दो पहली पत्नी से तथा सात दूसरी पत्नी से थी.
1857 की क्रांति में तात्या टोपे क्या योगदान था?
टोपे एक महान सेना नायक तथा जन जन्मजात प्रतिभा सैनिक था. जिसकी सत्ता से अंग्रेजी भी परेशान हो गए थे. वह पेशवा का निष्ठा वादी कर्तव्य परायण एवं स्वामी भक्त सेनापति था. तात्या टोपे एक जन्मजात सैनिक था. उसकी पहले की कई पीढ़ियां सेना में रही आई थी. तथा देश के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर चुकी थी. पेशवा के साथ तोपे टोपे भी बिठूर चले आए थे. तथा अन्य सामानों के सामान उन्होंने भी यहां अपना एक महल बनवाया था. जिसके खंडर आज भी दिखाई देते हैं. तथा टोपे एक महान कूटनीतिज्ञ थे. नाना साहब एवं राव साहब के सम्मान उन्होंने जल्दबाजी में कोई काम नहीं किया। बल्कि वे सदा सोचते विचार आने के बाद ही कोई काम करते थे. यही कारण था कि क्रांति के प्रारंभ में ही भले ही वे सक्रिय हो किंतु वक्त आने पर उन्होंने अपनी सक्रियता को दर्शाया.
जब 1857 ki Kranti प्रारंभ हो गई नाना साहब के राज्याभिषेक किए जाने के बाद अंग्रेज कानपुर की तरफ बढ़ने लगे. तो कानपुर में सेना को संगठित करने का कार्य तात्या टोपे ने संभाला. बिठूर पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने पर नाना साहब ने भागकर उन्नाव जनपद में शरण ली कालपी पर अधिकार कर लिया. उसने ग्वालियर से भी संपर्क बनाए रखा सितंबर में ग्वालियर के सैन्य दल ने जालौन तथा कच्छवागड़ पर अधिकार कर लिया. जगदीशपुर बिहार के कुंवर सिंह भी अपनी सेना के साथ कालपी पहुंच गए थे. तात्या टोपे ने नई बाई को हटाकर उसके स्थान पर उसके पुत्र को गद्दी पर बैठाया कालपी विद्रोहियों का केंद्र बनने लगा.
बाबू कुँवर सिंह कौन थे? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
कुंवर सिंह का जन्म 13-नवंबर-1777 ईस्वी में बिहार राज्य के आरा जिले के जगदीशपुर नामक ग्राम में हुआ था. आपके पिता का नाम साहबजादा सिंह था और माता जी का नाम रानी पंचरतन कुमारी देवी सिंह था. आपके फॅमिली उनके पूर्वजों को तथा उन्हें राजा की उपाधि प्राप्त थी. उनके पूर्वजों की भांति उनमें भी शौर्य सास एवं बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी. जगदीशपुर एवं आसपास के लोग गांव में उनके प्रताप एवं कीर्ति का सूर्य चमकता था.
कुंवर सिंह का बाल्यकाल जगदीशपुर में ही व्यतीत हुआ उनकी पढ़ने लिखने में रुचि नहीं थी. इसके विपरीत भाला बरछी और तलवार चलाने में उन्हें बहुत आनंद आता था. वह बहुत अच्छे घुड़सवार थे, और शिकार में उनकी काफी रूचि थी युवावस्था में पूर्व ही उन्होंने घुड़सवारी एवं तलवार चलाने में प्रश्नससीय योग्यता तथा दक्षता प्राप्त कर ली थी. अपने पिता साहबजादा सिंह की मृत्यु के पश्चात 1826 ईसवी में कुंवर सिंह जगदीशपुर की गद्दी पर बैठे उन्होंने बहुत कुशलतापूर्वक शासन का संचालन किया. आरा में अपने नाम पर एक बाजार बनाया जो अभी भी बाबू बाजार के नाम से विख्यात है.
1857 की क्रांति में बाबू कुँवर सिंह क्या योगदान था?
दोस्तों 1857 ki Kranti के बिहार के श्रेष्ठ कम योद्धा बाबू कुंवर सिंह को भी अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता अपनी जान से ज्यादा प्यारी थी. उनका पराक्रम एवं साहस अदितीय था. जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ तो आजादी के दीवाने कुमार सिंह अपने सिर पर कफन बांध कर निकल पड़े. वह क्षत्रिय थे उनकी रगों में उनके देश भक्त पूर्वजों का खून हिलोरे मार रहा था. उन्होंने हाथ में तलवार लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध भूमि में असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जैसी वीरता साहस और शौर्य का प्रदर्शन किया उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. 1857 ki Kranti के अमर शहीद और बिहार के गौरव श्री बाबू कुंवर सिंह ने बिहार की जनता पर अमिट छाप छोड़ी है.
कुमारी मैना कौन थी? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
दोस्तों कुमारी मैना नाना साहब की दत्तक पुत्री थी. कुमारी मैना ने बचपन से ही राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट भरी हुई थी. इसका उत्साह तथा त्याग देखते ही बनता था. प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उसने अपनी अवस्था के अनुकूल भाग लिया। नाना साहब उसकी दृढ़ता और देशभक्ति से भली भाती परिचित थे. मित्रों 1857 ki Kranti में हमारे देश की आजादी के लिए पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी अनेक त्याग एवं बलिदान दिए हैं. इनी ललनाओं में से एक थी कुमारी मैना. जिसने अपनी जान तक कुर्बान कर दी पर अंग्रेजों के समक्ष गुप्त राज, क्रांति की योजनाओ को प्रकट नहीं किया.
1857 की क्रांति में कुमारी मैना का क्या योगदान था?
दोस्तों कुमारी मैना को कैद कर के क्रन्तिकारियो की गुप्त सुचना देने के लिए अनेक यातनाए दी पर कभी मुँह नहीं खोला. साथ ही उन्होंने पुरुस्कार और प्रलोभन देकर उनको अपनी तरफ मिलाना चाहा. पर कुमारी मैना टस से मस नहीं हुई. अंत में अंग्रेजो ने नाना की इस दत्तक पुत्री को जिन्दा जलाने का आदेश दिया. अपने विनाश की बात सुनकर आउट्रम भड़क उठा. और उसने आदेश दिया इस लड़की को पेड़ पर बांधकर मिट्टी का तेल छिड़ककर जिंदा जला दिया जाए. सैनिकों ने तुरंत अपने जनरल की आज्ञा का पालन किया.
दोस्तों जब आग की लपेटे उठकर मैना के मुखमंडल को चूमने लगी. तब आउट्रम ने कहा अब भी यदि तुम अपने पिता तथा अन्य क्रांतिकारियों के पते बता दो तो हम तुम्हें मुक्त कर देंगे और उपहार देंगे. कुमारी मैना अविचलित खड़ी रही, आग की लपेटे उठती रही. वह स्वय भी किसी ज्वाला से कम नहीं थी. वह जीते जी अग्नि में झुलस कर मर गई. परंतु उसने क्रांतिकारियों के गुप्त रहस्य के बारे में कुछ नहीं बताया.
पीर अली कौन थे? 1857 की क्रांति में उनका क्या योगदान था?
पीर अली लखनऊ के रहने वाले थे, उनके बारे में विशेष जानकारी तो प्राप्त नहीं होती. पर इतना आवश्यक पता चला कि वह एक साधारण व्यक्ति थे. जिनमे देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी. व्यक्ति की महानता उसके वंश ऐश्वर्य आदि से नहीं अपितु उसकी निष्ठा से आकर जाती है. हमारी दृष्टि में एक साधारण व्यक्ति जिस में देशभक्ति की भावना हो देश के लिए मर मिटने की लालसा हो वह व्यक्ति प्रखंड पंडितों एवं करोड़पति यो से हजार गुना बेहतर है. पीर अली लखनऊ से पटना आकर बस गए आजीविका के लिए उन्होंने पुस्तक बिक्री का व्यवसाय प्रारंभ किया. वे चाहते तो अन्य काम भी कर सकते थे. वह पहले पुस्तक पढ़ते और इसके बाद दूसरों को पढ़ने के लिए देते थे. वह पुरुष धन्य हैं जो अपने ज्ञान को अपने तक ही सीमित नहीं रखकर समस्त जनता को लाभान्वित करता है.
1857 की क्रांति में पीर अली क्या योगदान था?
दोस्तों 1857 ki Kranti ने बिहार को भी प्रभावित किया यद्यपि यह सत्य है कि यहां आगरा, मेरठ, तथा दिल्ली की भांति क्रांति का जोर नहीं था. अपितु बिहार के कई क्षेत्रों में क्रांति ने भीषण रूप धारण कर लिया था. सैकड़ों अंग्रेजों को यहां मौत के घाट उतार दिया था. यहाँ मुख्य रूप से कुंवर सिंह और बाँसुरिया बाबा और पीर अली की मुख्य भूमिका रही.
दोस्तों बिहार के गया, छपरा, आरा, पटना, मोतिहारी तथा मुजफ्फरपुर आदि नगरों में क्रांति ने भीषण रूप धारण कर लिया था. अंग्रेजों ने दानापुर में एक छावनी की स्थापना की ताकि बिहार पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके. विदेशियों की सातवीं आठवीं तथा 40 वी पैदल सेनाएं थी. जिन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक विदेशी कंपनी और तोप सेना बुला रखी थी.
इनका प्रधान सेनापति मेजर जनरल लायड था. लेटर पटना का कमिश्नर था. जो बहुत दूरदर्शी था, उसमें प्रशासनिक क्षमता अत्यधिक थी उसका यह मानना था. कि पटना के मुसलमान भी इस क्रांति में हिंदुओं के साथ भाग लेंगे पटना में बहावी मुसलमानों की संख्या बहुत अधिक थी. अतः टेलर ने भावी मुसलमान नेताओं पर कड़ी नजर रखना प्रारंभ कर दिया.
अमरचंद बांठिया कौन थे?
अमरचंद बांठिया (नगर सेठ, कोषाध्यक्ष) 1857 ki Kranti के राजस्थान में प्रथम शहीद होने वाले क्रांति कारी थे. आप मूल रूप से बीकानेर का निवासी थे. आपके पिता जी ग्वालियर में व्यापार करते थे. आपके द्वारा तात्या टोपे व लक्ष्मी बाई को आर्थिक सहायता की गई. 22 जून 1858 को ग्वालियर में इनको फांसी दे दी गई. आपको राजस्थान का मंगल पांडे व 1857 की क्रांति का भामाशाह कहा जाता है.
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अमर शहीद श्री अमरचंद बांठिया राजस्थान के बीकानेर के निवासी थे. राजस्थान की राजपूतानी शौर्य भूमि बीकानेर में उनका जन्म 1793 ईस्वी में हुआ था. भारत देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा उनमे बचपन से ही था. बाल्यकाल से ही उन्होंने ठान रखा था. कि देश की आन-बान और शान के लिए कुछ कर गुजरना है. उनके पिता का नाम अबीर चंद भाटिया था. वे अपने पिता के साथ व्यापार के सिलसिले में मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर गए. उनके गुणों को देखकर वहां के तत्कालीन राजा जिया जी राव सिंधिया ने उन्हें ग्वालियर में बस जाने का आग्रह किया. अतः के परिवार से ग्वालियर में ही बस गए थे. दोस्तों ग्वालियर के तत्कालीन राजा सिंधिया जी ने अमरचंद जी भाटिया को नगर सेठ की उपाधि प्रदान की तथा पैर में सोने का कड़ा पहनने का अधिकार भी दिया.
1857 की क्रांति में अमरचंद बांठिया क्या योगदान था?
बाद में अमर सिंह भाटिया को ग्वालियर के राजा ने गंगाजली कोश का कोषाध्यक्ष बना दिया. जयाजीराव सिंधिया के अंग्रेजों मित्र होने के कारण उनकी सहायता करते रहते थे. जबकि अमरचंद बांठिया अंग्रेजों से नफरत करते थे. और देश को उनके चंगुल से आजाद करवाना चाहते थे.
दोस्तों जब 1857 ki Kranti प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ. तो अमर सिंह भाटिया जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम में भाग लिया. अंग्रेजी सेना ने ग्वालियर पर आक्रमण किया तो उन्होंने रियासती सेना के साथ राजकोष का खजाना अपनी पैतृक संपत्ति अंग्रेजों के विरोध में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को सोप कर स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
18 जून 1858 ईस्वी में अंग्रेजों ने ग्वालियर पर अधिकार करने के बाद जयाजीराव सिंधिया को पुनः ग्वालियर का शासक बना दिया. सेठ अमरचंद को गिरफ्तार कर लिया गया उन पर धोरे राजद्रोह का आरोप लगाते हुए मुकदमा चलाया गया. अंग्रेजी ब्रिगेडियर नेपियर ने सेठ अमरचंद जी से कहा तुम पर दौरे राज द्रोह के आरोप है तुम्हें फांसी की सजा क्यों न दी जाए.
फांसी पर चढ़ाने से पूर्व अमरचंद भाटिया जी से उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई. इस पर उन्होंने कहा मैं फांसी पर लटकने से पूर्व एक सामायिक करना चाहता हूं. आपकी अंतिम इच्छा पूरी की गई. आपने सामायिक करके नवकार मंत्र का स्मरण किया. इसके बाद 65 वर्षीय भाटिया जी को 22 जून 1858 ईस्वी को ग्वालियर में सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ पर लटका कर सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई थी. आजादी का यह दीवाना हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया इनके शव को अंग्रेजों ने जलाने के स्थान पर दफना दिया अंग्रेजों द्वारा भाटिया जी को दी गई फांसी का शासकीय रिकॉर्ड भी नहीं रखा गया.
अवंती बाई लोधी कौन थी?
अवंतीबाई लोधी का जन्म पिछड़े वर्ग के लोधी राजपूत समुदाय में 16 अगस्त 1831 को ग्राम मनकेहणी, जिला सिवनी मध्य प्रदेश के एक जमींदार राव जुझार सिंह के यहां हुआ था. अवंतीबाई लोधी की शिक्षा दीक्षा मनकेहणी ग्राम में ही हुई. अपने बचपन में ही आपको तलवारबाजी और घुड़सवारी और युद्ध कौसल के गुण दिए गए.
1857 की क्रांति में अवंती बाई लोधी का योगदान था?
अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति प्रारंभ होने से पहले क्रांति के प्रतीक चिन्ह लाल कमल का फूल और चपाती को गांव गांव भेजा गया. कमल और चपाती रामगढ़ भी पहुंची जिसे अवंती बाई ने ले ली. रानी ने क्रांति का संदेश अपने सर जाति के व्यक्तियों एवं अन्य प्रमुख व्यक्तियों के पास कागज की पुड़िया में भिजवाया. प्रत्येक पुड़िया में एक छोटा सा कागज का टुकड़ा और एक शादी चूड़ी थी. कागज पर सन्देश के शब्द इस प्रकार थे. “देश की रक्षा करने के लिए या तो कमर कसो या चूड़ी पहनकर घर में बन्द हो जाओ. तुम्हे घर्म ईमान की सौगंध है, जो इस कागज का सही पता बेरी को दो.
ब्रटिश कंपनी के असंतोष के विरोध 1857 ki Kranti में क्रांतिकी बेड़िया टूटी. इस क्रांति में न केवल सैनिकों ने अपितु अनेक राजा महाराजाओं ने भी भाग लिया. झांसी, सातारा, कानपुर, मेरठ, नीमच आदि स्थानों पर क्रांतिकारियों ने अपने झंडे फेरा दिए. 1857 ki Kranti की ज्वाला भड़क उठी तो रानी अवन्ति बाई ने भी क्रांति में सक्रिय भूमिका निभाने का निश्चय किया. उसने सरकार द्वारा नियुक्त मांडला के तहसीलदार को बर्खास्त कर दिया. और शासन व्यवस्था अपने हाथ में ले ली. अब रानी सव्य क्रांति का नेतृत्व करने लगी.
अजीजन बेगम कौन थी?
22 जनवरी सन 1824 मध्य प्रदेश के मालवा राज्य के नगर राजगढ़ में ज़ागीरदार शमशेर सिंह के यहाँ कन्या रत्न का जन्म जो हुआ था. शमशेर सिंह की इकलौती संतान को नाम मिलता है “अजंसा “. समय “अजंसा “ को एक रूपवान कन्या के रूप में ढाल देता है. एक दिन अजंसा अपनी सहेलियों के साथ “हरादेवी “ मंदिर के मेले में घुमने जाती है. और वहाँ से उसे अंग्रेज सिपाही अगवा कर लेते हैं. इस सदमे को शमशेर सिंह झेल नहीं पाते और उनकी जान चली जाती है. कानपुर छावनी में कई दिन तक अजंसा से अपनी हवस शांत करने के बाद गोरे सिपाही उसे कानपुर के लाठी मोहाल में एक कोठे की मालकिन अम्मीज़ान के हाथों बेच देते हैं, और अब अजंसा “अजीजन बाई“ बन जाती है.
जल्द ही अजीजन की शोहरत पुरे राज्य में फ़ैलने लगती है. तबले की थाप पर थिरकती अजीजन सारंगी के स्वरों में तैरने लगती है. महफ़िलें जमने लगती हैं. देह व्यापार के बल पर नहीं केवल अपनी आवाज़ के जादू से अजीजन शोहरत, हवेली , नौकर ,चाकर सब हासिल कर लेती है. ठीक उसी समय अजीजन की शोहरत की तरह ही हिंदुस्तान एक बदलाव की तरफ़ बढ़ रहा होता है. मेरठ में 10 मई 1857 ki Kranti को क्रान्ति का बिगुल बज जाता है. मेरठ की तवायफें सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी हो जाती हैं. ये सुनने के बाद अजीजन के मन में अंगेजों से बदले के लिए अरसे से दबी चिंगारी आग में बदलने लगती है.
1857 की क्रांति में अजीजन बेगम क्या योगदान था?
कानपुर के क्रांतिकारी भी अपने गुप्त बैठकें आयोजित करते थे. वहां नाना साहब, बाला साहब नाना साहब के भाई, तथा तथा तात्या टोपे क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे. 1 जून 1857 ki Kranti ईस्वी को क्रांतिकारियों की एक गुप्त गुप्त बैठक आयोजित की गई थी. जिसमें समसुद्दीन का नाना साहब, बाला साहब, सूबेदार टीका सिंह, अजीमुल्ला खां के अतिरिक्त अजीजन बेगम ने भी भाग लिया था. गंगाजल की साक्षी लेकर उन सभी ने कसम खाई कि हम भारत में अंग्रेजी सत्ता को समाप्त कर देंगे.
तात्याटोपे से विमर्श के बाद अजीजन अपनी सारी संपत्ति आज़ादी की लड़ाई के लिए नाना साहब को दान कर देती है. और ख़ुद घुंघरू उतार कर तलवार उठा लेती है. नाना साहब अजीजन को अपनी बहन का दर्जा देते हैं. अजीजन अन्य तवायफ़ों के साथ मिल कर एक टोली बनाती है. जिसका नाम मिलता है “मस्तानी टोली“ तात्या टोपे मस्तानी टोली को युद्ध की कला और हथियार चलाने की शिक्षा देते हैं.
दिन में भेष बदल कर अंग्रेजों से मोर्चा लेना और रात में छावनी में मुज़रा करके गुप्त सूचनाएं नाना साहब की सेना तक पहुँचाना अजीजन और उनकी मस्तानी टोली का मुख्य काम था. युद्ध में घायल सैनिकों की सेवा और किले की नाकेबंदी के दौरान सैनिकों को रसद आदि मुहैया करवाने में भी अजीजन और उनकी टोली का बड़ा योगदान रहा.
स्वामी दयानंद सरस्वती कौन थे?
स्वामी दयानंद सरस्वती के बचपन का नाम मुलशंकर था. उनका जन्म 12 फ़ेरबरी-1824 ईस्वी में गुजरात के टंकारा परगने के शिवपुर नामक ग्राम में धनी रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम अंबा शंकर था और माता जी का नाम यशोदाबाई था. जब आप 14 वर्ष के थे, तब एक बार शिवरात्रि पर वे अपने पिता के साथ शिव के मंदिर में गए. वहां उन्होंने देखा कि एक चूहा शिवलिंग पर चढ़कर प्रसाद खा रहा है. मूल शंकर ने सोचा कि जो महादेव अपने त्रिशूल से बड़े-बड़े राक्षसों का संहार करता है. क्या वह साधन चूहे को अपने ऊपर से नहीं हटा सकता। यह देखने के पश्चात उनका मूर्ति पूजा से विश्वास उठ गया.
जब उनके पिता 1845 ईस्वी में उनका विवाह करने लगे तो यह घर छोड़कर भाग गए. अगले 15 वर्षों तक वह विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते रहे और अध्ययनरत करते रहे. 1807 ईस्वी में वे मथुरा पहुंचे और वहां स्वामी विरजानंद को अपना गुरु बनाया एवं वहीं पर इन्होंने वेदों का अध्ययन किया. इसके बाद उन्होंने अपने गुरु के आदेशानुसार वैदिक धर्म में व्याप्त बुराइयों तथा अन्य विश्वासों का खंडन कर देश में वैदिक धर्म एवं संस्कृति की प्रतिष्ठा पुणे स्थापित करने के लिए जीवन भर प्रयास किया.
1857 की क्रांति में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का योगदान था?
दोस्तों 1855 ईस्वी में हरिद्वार में विशाल कुंभ मेला लगा. स्वामी दयानंद जी भी इस मेले में भाग लेने के लिए हरिद्वार पहुंचे। इस समय अंग्रेजों के अत्याचारों के कारण संपूर्ण देश की जनता में उनके विरुद्ध भयंकर असंतोष व्याप्त था. नाना साहब, अजीमुल्ला खान, और पवन सिंह, अजीजन बाई, महारानी लक्ष्मीबाई, अवन्ति बाई लोधी आदि मेले में भाग लेने के लिए हरिद्वार पहुंचे. वहां स्वामी जी से मिले नाना सहाब ने उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति करने के लिए प्रेरित किया.
स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1857 ईसवी से 1883 ईस्वी तक काल में भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का हर संभव प्रयास किया. 1857 की क्रांति की असफलता के बारे में स्वामी जी का विचार था. कि यदि देशी रियासतें के नरेशों ने भी स्वाधीनता संग्राम में सहयोग दिया होता तो. भारत 1857 ki Kranti में ही स्वतंत्र हो जाता. परंतु कुछ सवदेशी रियासतों के शासकों ने क्रांतिकारियों का साथ देने से स्थान पर क्रांति को कुचलने के लिए अंग्रेजों को सहायता दी थी. इस लिए 1857 ki Kranti असफल हुई थी लेकिन अंग्रेजो की नींद उड़ा दी थी.
झलकारी बाई कौन थी?
झलकारी बाई झांसी रियासत के एक बहादुर किसान सदोवा सिंह की पुत्री थी. आपका जन्म 22 नवंबर 1835 ईस्वी को झांसी के समीप भोजला गांव में हुआ था. आपकी माता का नाम जमुना देवी था. जिनका अधिकांश समय प्रातः जंगल में ही काम करने में व्यतीत होता था. जंगलों में रहने के कारण ही झलकारी बाई के पिता ने इनको घुड़सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा दिलवाई थी.
जब झलकारी बाई जब बच्ची थी, तब उनकी माता जमुना देवी का देहांत हो गया था. उनके पिता ने उनका पालन पोषण पुत्र की भांति किया था. दूरस्थ गांव में रहने के कारण झलकारी बाई स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकी थी. झलकारी के पिता ने डाकुओं के आतंक और उत्पाद होने होते रहने के कारण उनको शस्त्र संचालन की शिक्षा दी थी ताकि वह समय अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर सकें. 04-अप्रैल-1857 ki Kranti को इस महान बलदानी झलकारी बाई और इनके पति पूरन सिंह ने अंग्रजो से लड़ते-लड़ते अपने प्राण त्याग दिए.
झलकारी बाई ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को क्या राय दी थी?
झांसी के किले पर अंग्रेजों का आक्रमण और तेज होता जा रहा था उस समय झलकारी बाई ने महारानी लक्ष्मी बाई से निवेदन किया. बाईसा! अब आपको इस किले से किसी भी प्रकार बाहर हो जाना चाहिए. दुश्मन को धोखे में डालने के लिए यह उचित होगा कि आप का वेश धारण करके पहले मैं छोटी सी टुकड़ी लेकर किसी मोर्चे से भागने का प्रयास करूंगी. मुझको रानी समझ दुश्मन अपनी पूरी शक्ति मुझे पकड़ने या मारने पर लगा देगा.
इसी बीच दूसरी तरफ आप किले से बाहर हो जाइए शत्रु भ्रम में पड़ जाएगा कि असली महारानी कौन है. स्थिति का लाभ उठाकर आप सुरक्षित स्थान पर पहुंच सकती हैं. और फिर सैन्य संगठन करके अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर सकते हैं. महारानी लक्ष्मीबाई को यह कार्रवाई की योजना पसंद आ गई. वह खुद भी किले के बाहर निकलने की योजना बना रही थी.
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FAQs
Ans- अंग्रेज सेना का एक सिपाही मंगल पांडेय भारत के पहले शहीद माने जाते है. इन्होने ही 1857 क्रांति का बिगुल बैरकपुर छावनी से फुका था.
भाई आपके इस जीवनी उल्लेख मैं कित्तूर (कर्नाटक) के राजकुमार और रानी चेनम्मा के दत्तक पुत्र कुरूवंशी (कुरूबा) क्रान्तिवीर संगोली रायन्ना जी का उल्लेख नहीं है
सॉरी सर आप ने मुझे जानकारी दी उसके लिए धन्यवाद में और सर्च करुगा और उनकी जीवनी और बलिदान जरूर उल्लेख करूँगा