India china war 1962- भारत और चीन का युद्ध होना था उसकी पृष्ठभूमि 23 मई 1951 को तैयार होनी शुरू हो गई थी. भारत और चीन का यह युद्ध वास्तव में सन् 1962 की आरंभ हो गया था. इस युद्ध के पीछे मुख्य कारण चीन की कूटनीति थी और इसी नीति ने चीन को भारत के विरुद्ध कर दिया था. इस समझौते के तहत चीन ने तिब्बत को एक स्वायत्त शासन दे दिया था. तथा वहां भारतीय हितों को संरक्षण का भी आश्वासन दिया था. इस समझौते को भारत सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी थी. चीन ने यह समझौता भंग करते हुए फरवरी 1952 में तिब्बत की राजधानी ल्हासा में सैन्य मुख्यालय स्थापित कर लिया था. और चीन की सीमा भारत के साथ जुड़ गई तथा सीमा विवाद का रूप इस युद्ध का एक प्रमुख कारण बना.
विवाद को खत्म करने के उद्देश्य से भारत ने दिंसबर 1903 में अपना एक समुदाय जो कि शिष्ट मंडल के नाम से जाना जाता है. उसे चीन की राजधानी भेजा. इस पहल के परिणाम स्वरूप 29 अप्रैल, 1954 को दोनों राष्ट्रों के मध्य पंचशील समझौता हुआ. इस इस समझौते के तरत भारत ने तिब्बत पर चीन के प्रभुत्व को स्वीकार करते हुए एक-दूसरे की प्रभुसत्ता का सम्मान, आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने, एक-दूसरे पर आक्रमण न करने के सिद्धांत का अनुसरण करने का वचन दिया. इस समझौते की आड़ में चीन ने अपनी चालें चलनी शुरू कर दी थी.
इस बात का खुलासा उस समय हुआ जब जुलाई 1958 में चीन द्वारा प्रकाशित एक मानचित्र में नेफा के असम तक. लद्दाख की ओर चुशूल तथा अक्साई चिन व उत्तर प्रदेश के बाराहोती तथा निति दर्रा तक का क्षेत्र उसने अपनी राष्ट्रीय सीमा के अंतर्गत दिखाया. इसी के साथ उसने अपनी सैनिक गतिविधियां भी तेज कर दी थीं. हमारी सरकार को इसे सुधारने के लिए समय ही नहीं मिल पाया है। इसके साथ ही चीन अपनी कूटनीतिक चालों को चलता रहा तथा सैनिक महत्त्व की दृष्टि से चौकियों तथा रास्तों का निर्माण कार्य भी प्रारंभ कर दिया.
जब चीन ने मैकमोहन सीमारेखा लाँधि
दिसंबर 1958 में भारत सरकार ने पुनः इसका विरोध किया तो चीन ने प्रतिक्रिया स्वरूप कहा, चीन ब्रिटेन द्वारा निर्धारित मैकमोहन सीमारेखा को मान्यता नहीं देता. और भारत द्वारा प्रदत्त सीमारेखा में 50,000 वर्ग मील से भी अधिक क्षेत्र चीन का है. जिसमें लगभग 15,000 वर्ग मील क्षेत्र लद्दाख की ओर 32,000 वर्ग मील क्षेत्र नेफा की ओर तथा शेष 3,000 वर्ग मील क्षेत्र मध्यवर्ती भागों में स्थित है. भारत को चीन से ऐसी आशा नही थी जैसा कि चीन ने किया चीन के इस व्यवहार ने भारत को बहुत आधरण पहुँचाया. तथा हिन्दू, चीनी का जो भाई-भाई का संदेश भेज रहा था अब तो वह भी व्यर्थ लग रहा था.
जिस समय चीन ने तिब्बत पर अपना प्रभाव जमाना शुरू किया तो उन्होंने तिब्बती लोगों पर दमन नीति भी अपनाई. 31 मार्च, 1959 को तिब्बती नेता दलाई लामा तथा असंख्य तिब्बती लोगों ने भागकर भारत में शरण ली. भारत द्वारा तिब्बती लोगों को शरण देने से चीन खुलकर विरोध में आ गया. साथ ही उसने नेफा तथा असम के क्षेत्रों में तिब्बती शरणार्थियों के वेश में जासूस भेजकर वस्तुस्थिति का जायता लिया और भारत-विरोधी कार्यवाही तेज कर दी.
India china war 1962
इसी के साथ चीन में भारत पर आरोप लगया कि वह तिब्बत के सशस्त्र विद्रोहियों को संरक्षण प्रदान कर रहा है. इस आरोप के बहाने चीन के सशस्त्र सैनिकों ने भारत सीमा में 10 से 15 मील तक प्रवेश करके चौकियों पर आक्रमण आरंभ कर दिया. इस आक्रमण में केन्द्रिय रिजर्व पुलिस बल के 10 जवान शहीद हुए. 20 अक्टूबर, 1959 को चीनी सैनिकों ने घात लगाकर पेट्रोलिंग करते समय आक्रमण किया था. आज भी 20 अक्टूबर को केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ‘पुलिस स्मृति बल ‘दिवस’ के रूप में मनाता है.
भरत तो सदैव ही शांति चाहता था. चीन के रूढ़ स्वभाव दिखाने पर भी भारत पीछे नही हटा उसने 1959 नंवबर में चीन को समझने समझोते के लिए प्रस्ताव रखा. जिसमें भारत में चीन से यह आवंदन किया कि वह भारत की सीमाओं व क्षेत्र से अपना अधिकार हष ले व उन्हे मुक्त कर दे. चीन कसे इन शांति प्रस्तावों की परवाह नहीं थी उसने अपनी सेनाओं को आगे बढ़ाने का सिलसिला जारी रखा.
इसके साथ ही अक्साई चिन के दक्षिणी एवं पश्चिमी क्षेत्रों पर मार्गों का निर्माण कार्य भी शुरू कर दिया. इधर भारत के लगातार शांति प्रयासों के परिणामस्वरूप अप्रैल 1960 में चीन ने प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई दिल्ली आए और लगभग 6 दिन तक शांतिवार्त्ता चली, परंतु यह भी सफल नहीं रही. इसके बाद दोनों देशों के विशेषज्ञों की बैठक भी हुई, जिसमें चीन ने कश्मीर के क्षेत्र को भारत के क्षेत्र के रूप में स्वीकार नहीं किया. तथा भूटान व सिक्किम के उत्तर में तिब्बत सीमा पर वात्ता करना भी उन्हें स्वीकार नहीं हुआ. अतः सभी वार्त्ताओं का परिणाम शून्य ही रहा.
चीन और पाकिस्तान की कूटनीति योजना
चीन ने अपनी कूटयोजना के तहत मई 1962 में पाकिस्तान के साथ एक समझौता करके कराकोरम क्षेत्र के उत्तर में कश्मीर का 300 वर्ग मील क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया. जिससे उसकी योजना के लिए एक नया रास्ता खुल गया. भारत ने इसका विरोध किया, परंतु नागरिक यातायात के लिए अक्साई चिन सड़क का उपयोग उचित करार दिया. वह भारत के उत्तरी क्षेत्र में अपना कूटनीतिक एवं सैनिक जाल लगातार बिछाता जा रहा था. जिसमें भारत अपनी शांतिप्रियता के कारण स्वयं ही फंसता गया. 1962 के आरंभ में चीन ने अपनी सैनिक कार्यवाहियों में तेजी लानी शुरू कर दी थी. जून में ‘पंचशील समझौते’ की अवधि भी समाप्त हो गई थी. अतः उसने सभी परिस्थितियों को अनुकूल बना लिया था.
चीन ने अपनी आरंभिक लड़ाई के लिए भारत, तिब्बत व भूटान से लगे हुए थागला क्षेत्र को चुना और सितंबर 1961 में सीमा चौकियों में छिटपुट सैनिक कार्यवाही आरंभ कर दी. भारत अपनी प्रतिरक्षात्मक नीति के कारण दबाव में आता गया और 10 अक्टूबर, 1962 को चीन के नमकाचू नामक ‘भारतीय सीमा चौकी पर आक्रमण कर दिया, जिससे भारत को भारी आघात पहुंचा, क्योंकि चीन के पहले से ही अपनी आपूर्ति व्यवस्था के संपूर्ण साधन जुटा लिये थे. जबकि भारत की सेना बड़ी कठिनाई के साथ वहां पहुंच पा रही थी. भारतीय सेना ने इस आक्रमण के जवाब में चीन ने नेफा के ढोला क्षेत्र में स्थिति मजबूत बना ली थी.
भारत चीन सेनाओं के मध्य शक्ति का मापन
भारत एवं चीन के मध्य लड़े गए इस युद्ध में शाक्ति एवं संख्या के दृष्टिकोण से चीन की सेना भारत से कहीं अधिक श्रेष्ठ थी. चीन के पास जहां सैनिक संख्या बहुत अधिक थी, वहां उसकी सेना अत्यंत सुसंगठित, सुप्रशिक्षित एवं शास्त्रास्त्रों से सज्जित भी थी. एक तरह से चीन की सेना संसार की सबसे बड़ी थलसेना के रूप में थी. 1962 में केवल तिब्बत में चीन की 14 डिवीजन सेना थी, जबकि कुल भारतीय सेना में डिवीजनों की संख्या 10 से भी कम थी.
चीन की सेना इस प्रकार थी-वायुसेना लड़ाकू विमान- 4,000, अन्य विमान- 3,000, कुल विमान 7,000. थलसेना-माओ-त्से-तुंग की लाल सेना – 2,35,00,000, ख. चीन की नियमित सेना – 40,50,000.
भारत की सेना में व्यक्तियों को संख्या तो पहले से ही कम थी. साथ ही उनके पास युद्ध में खड़े रहने के लिए मार्गो का भी अभाव था. उनके पास न तो साधन थे और न ही अस्त्र शस्त्र. भारत को काफी क्षति हुई जब चीन ने अचानक हमला कर दिया. लद्दाख क्षेत्र इस क्षेत्र में 114 पैदल ब्रिगेड को नियुक्त किया गया था. सितंबर 1962 में एक और बटालियन 13 कुमाऊँक को भी लद्दाख में तैनात किया गया. अस्थायी तौर पर लेह में स्थित था. इस प्रकार अब 114 ब्रिगेड में 5 बटालियन हो गए.
लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश पर चीन का आक्रमण
20 अक्टूबर को चीन ने भारत के उत्तर-पश्चिम लद्दाख के चिपचैप क्षेत्र से लेकर उत्तर-पूर्व सीमांत एजेंसी (नेफा) अथवा अब के अरुणाचल प्रदेश के खिंजमान व ढोला चौकी के बीच अनेक भारतीय चौकियों पर आकस्मिक धावा बोलकर उन्हें अपने अधिकार में कर लिया. जब भारत पर अचानक यह हमला हुआ तो वह स्वयं को संभाल नही पाया और उसे बहुत हानि उठानी पड़ी. लेकिन चीन में तुरन्त इसका फायदा उठाया भारत अपनी सैन्य शक्ति में कभी के कारण कुशलत्य पूर्वक अपने ऊपर हुए आक्रमण का जवाब नही दे पाया.
21 अक्टूबर को प्रातःकाल लगभग 5 बजे चीनियों ने त्सांगघर में स्थित भारतीय सेना के सातवें ब्रिगेड मुख्यालय पर भी अपना अधिकार जमा लिया और ब्रिगेडियर सहित अनेक तैन्याधिकारियों को बंदी बनाने में सफल हुए. साथ ही चीन ने बूमला में सिक्ख रेजीमेंट पर हमला कर दिया, जहां एक संघर्ष के पश्चात् पुनः चीनी सैनिकों को सफलता प्राप्त हो गई. बूमला का अधिकार हो जाने से चीन की अब तवांग के लिए भी रास्ता प्राप्त हो गया.
नेफा क्षेत्र की कार्यवाही
22 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने अपनी निर्धारित योजना के अनुसार तवांग पर भी धावा बोल दिया तथा तीन ओर से भारत की ओर बढ़ना शुरू कर दिया. योजनानुसार चीनी सेना मैकमोहन सीमारेखा को लांघते हुए आगे बढ़ने लगी भारतीयसेना ने उसका विरोध किया. 24 अक्टूबर को चीन ने अरुणाचल प्रदेश के क्षेत्र में दो ओर से हमला कर दिया. तवांग की ओर तेजी से साथ बढ़ती हुई चीनी सेना ने बोमडीला, कीबूतु, लुंपू तथा ससाफौला आदि भारतीय चौकियों पर अपना कब्जा जमा लिया. इस क्षेत्र में चीनी आक्रमण अत्यंत प्रभावशालरी सिद्ध हुआ. 4 तथा 25 अक्टूबर को चीन ने तवांग क्षेत्र पर तीन ओर से हमला करके उसे अपने अधिकार में कर लिया.
उस दिन की घटना ने भारतीय सेना को शस्त्रास्त्रों के अभाव में वहां से हटना पड़ा. उसमें लद्दाख क्षेत्र के चुशूल पर भी कब्जा कर लिया। 30 अक्टूबर को पुनः एक हमला करके जाराला तथा दमचोक चौकियों पर भी चीन का कब्जा हो गया तथा वालोंग तक पहुंचने में उसे सफलता हासिर हो गई. 3 नवंबर को चीन ने अपनी सेना को पुनर्गठित किया तथा सिक्किम व भूटान के बीच स्थित चुंबी घाटी में लगभग 18,000 सैनिक उत्तार दिए. उस समय चीन ने लद्दाख के क्षेत्र में लगभग 2,300 वर्ग मील का क्षेत्र अपने अधीन कर लिया था. इस दौरान भारतीय सेना के साथ कड़ा संघर्ष होता रहा.
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India china war 1962
चीन ने नेफा क्षेत्र पर हमला किया तथा 10 नवंबर को उनकी वालोंग चौकी पर तथा 18 नंवबर को सेला पहाड़ी पर अपना कब्जा कर लिया, इसके साथ ही उन्हे दिरांग तथा बोमडीला दरों पर भी अपना प्रभुत्व जमाने का रास्ता मिल गया. परंतु 15 नवंबर को चीनी सेना वालोंग के उत्तर-पश्चिम में स्थित एक महत्त्वपूर्ण पहाड़ी पर अना अधिकार जमा लिया. 15 नवंबर को नेफा के क्षेत्र में ही ‘जंग’ नामक स्थान पर भारतीय सेनाओं ने चीनी सेना के विरुद्ध जोरदार संघर्ष किया, फिर भी चीन के लगभग 5 ब्रिगेड तवांब-चू नदी को ‘जंग’ नामक स्थान से पार करने में सफल हो गए. 17 नवंबर को वालोंग के क्षेत्र में दोनों के मध्य जोरदार युद्ध हुआ, अंततः इस क्षेत्र पर चीनियों का अधिकार हो गया.
18 नवंबर को चीनी सेनाओं ने सेला पहाड़ी पर भी अपना अधिकार कर लिया, जिससे उसे दिरांग तथा बोमडीला दरों पर अधिकार करने का एक अच्छा मौका मिल गया. इस प्रकार 20 नवंबर तक चीन के कामेंग सीमांता डिवीजन से भारत को निकालने का लक्ष्य पूरा कर लिया. जब दोनों पक्षों के मध्य घमासान लड़ाई जारी थी, चीन ने 20 नवंबर, 1962 की आधी रात को नाटकीय ढंग से एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा करके दिसंबर से सेनाएं हटाने का आश्वासन दिया. इसके बावजूद अपनी कूट चालों द्वारा संपूर्ण उत्तरी-पूर्वी सीमांत पर आक्रमण जारी रखकर अपना अधिकार जमाने का अभियान भी बनाए रखा.
इससे भारतीय सीमा के इस क्षेत्र में एक भीषण संकट उत्पन्न को गया. इसी कारण भारतीय थलसेनाध्यक्ष जनरल पी.ए. थापर के स्थान पर लेफ्टीनेंट जनरल जे. एन. चौधरी को कार्यवाहक सेनापति बनाया गया. जनरल चौधरी ने ‘शत्रु को भारतीय सीमा से खदेड़ने का संकल्प लिया तथा जोरदार प्रयास आरंभ किए, परंतु इसी दौरान चीन ने पुनः युद्ध विराम की घोषणा की.
भारत-चीन सीमा समस्या के हल के लिए 10 दिसंबर से 12 दिसंबर तक कोलंबो सम्मेलन हुआ. भारत को अमेरिकी सैनिक सहायता भी इसी दौरान मिल चुकी थी, जिससे भारतीय सेनाओं ने लाभ उठाया और चीनी सेना के हरजाने के कारण सामरिम महत्त्व के क्षेत्र वालोंग, बोमडीला तथा मंचुका आदि पुनः प्राप्त कर लेने में सफल हो गई. इस प्रकार उत्तरी-पूर्वी सीमांत क्षेत्र का यह एक संक्षिप्त घटनाक्रम था.
चीन की लद्दाख क्षेत्र की कार्यवाही
लद्दाख क्षेत्र में सैनकों ने अपनी शक्तिशाली टेढी चाले चलाकर क्षेत्र में जो कायवाही हो रही थी वे अवश्य था. क्योंकि सैनिक अपने रक्षा करने के लिए वे कार्यवाही कर रहे थे इसलिए लद्दाख आतंकवादियों ने अपनी चाले चली. चीन का लद्दाख के क्षेत्र में कार्यवाही का प्रथम चरण 20 अक्टूबर को कराकोरम दर्रे के अधिकार से शुरू हुआ. फिर चीन ने अक्साई चिन का क्षेत्र हथियाना आरंभ कर दिया. इस क्षेत्र में जहां भारतीय सैनिक अपने राष्ट्र की शान के लिए बलिदान दे रहे थे, वहां व्यवस्था एवं साधन के अभाव में उन्हें भीषण एवं भयानक आघात सहने पड़ रहे थे. बिना तैयारी एवं बिना साधन के हमारी सेना ने जो मुकाबला किया, वह सैन्य-इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है.
27 अक्टूबर को चीनी सेना ने दमचोक चौकी पर अधिकार कर लिया. इस तरह अपना अधिकार अभियान चीन लगातार तेज करता जा रहा था. 5 नवंबर, 1962 तक चीन के इस क्षेत्र के उन सभी महत्त्वपूर्ण ठिकानों पर अधिकार कर लिया, जिन्हें वह अपना मानकर दावा पेश कर रहा था. इस मोरचे में नायक रामकुमार यादव की भूमिका भी विशेष रूप से उल्लेखनीया रही थी. इस मोरचे में लगभग 120 भारतीय सैनिक शहीद हुए जबकि उन्होंने 1,800 चीनी सैनिकों को अपना शिकार बनाया था. इस अभियान में तेरहवीं बटालियन कुमाऊँ रेजीमेंट के अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया. मेजर शैतान सिंह तथा नायक रामकुमार यादव को सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ प्रदान करके सम्मान दिया गया.
भारत चीन युद्ध में भारत का साथ किस देश ने दिया?
इस प्रकार हिमालय के इस मोरचे पर चीन के लगातार प्रहार जारी रहे. जिसका मुकाबला भारतीय सेनाओं ने साधन एवं आपूर्ति के अभाव में करके विश्व को आश्चर्य में डाल दिया, परंतु चीन के लगातार आक्रमण एवं विशाल शक्ति भारत के देशों से सहायता का प्रयास किया वे सहायता नही मिली. क्योंकि प्रधान मत्री खुश्लेख ने इसीलए ऐसे कहां क्योंकि वे अपने भारत हमारा मित्र और चीन हमारा भाई है ताकि ये दोनो क्योकि उस समय इन दोनो देशों में लगातार आक्रमण हो रहा था. क्योंकि वे अपने दोनो देशों को अपना मानते थे.
अतः रूस दोनों के विवाद में किसी को कोई सहायता नहीं दे सका. रूस ने युद्ध के पूर्व हुए विमानों के सौदे को भी रोक लिया और भारत के विशेष अनुरोध पर ही समुद्र के रास्ते प्राप्त करने की इजाजत दी. केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन तथा उसके प्रभाव क्षेत्र के कुछ पश्चिमी राष्ट्रों ने भारत की सहायता की. जिस समय अमेरिका का नौसैकिक बेड़ा हिन्द महासागर में प्रवेश कर गया था तथा शस्त्रास्त्रों य आवश्यक सैनिक सामग्री की आपूर्ति भी आरंभ हो गई थी. उसी समय चीन के बदलती हुई परिस्थितियों का अनुमान लगाकर 21 नवंबर, 1962 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी. और मैकमोहन रेखा के दक्षिण में 20 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र को असैनिक क्षेत्र घोषित करके अपनी सेनाएं वापस बुला लीं.
लद्दाख के क्षेत्र में उसने अक्साई चिन के अतिरिक्त पशूल हवाई अड्डे के निकट तक का बलात् अधिकृत इलाका अपने अधीर रखा. उसने इस क्षेत्र तथा भारतीय क्षेत्र के बीच 20 किलोमीटर चौड़ी पट्टी को असैनिक क्षेत्र घोषित कर दिया. इस प्रकार भारत का लद्दाख में लगभग 14,000 वर्ग मील क्षेत्र पूर्व रूपेण उसके सैनिक अधिकार में चला गया.
The India china war 1962
इस क्षेत्र में चीन अभी और आगे बढ़ना चाहता था. परंतु भारतीय शीर्ष-पराक्रम के उसके लगाम लगा दी थी. चीनियों की युद्ध सफलता एवं आकस्मिक एकपक्षीय युद्ध विराम एक विस्मयकारी घटना थी. इसके पीछे निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कारण छिपे थे-
- चीन अपने महत्त्व के ठिकानों पर पूर्ण अधिकार तथा भारत की पराजयस का स्थायी लाभ उठाना चाहता था.
- जहाँ चीन को सैनिक सफलता प्राप्त हुई थी, वहां नागरिक विफलता के रूप में भारत के कम्यूनिस्ट पार्टी का नाम सदा के लिए मिटने से उसे बचाना था.
- अमेरिका द्वारा कम्यूनिस्ट के बढ़ते कदम को अंकुश लगाने के लिए आगे आ जाना था, क्योंकि चीन अमेरिका के सामने नहीं टिक पाता और बदनाम हो जाता.
- विश्व के अधिकांश देश चीन की इस कार्यवाही का खुलकर विरोध एवं भर्त्सना कर रहे थे। पश्चिमी राष्ट्र-ब्रिटेन एवं अमेरिका तो तत्काल सैनिक सहायता देकर भारत की ओर से जुटने लगे थे.
- उसकी सभी ख्वाहिश अब जो कि उसने सोवियत संघ से पूरे होने की सोची थी अब वह शुरू के चंगुल में आ गई थी.
- उन्हें अपनी इज्जत बचाने व गरिमा को अंतराष्ट्रीय स्तर तक बनाए रखने का मौका मिल गया था.
- उन्हें अपनी इज्जत बचाने व गरिमा को अंतराष्ट्रीय स्तर तक बनाए रखने का मौका मिल गया था.
- नेफा तथा लद्दाख के महत्त्वपूर्ण सामरिक दरों का अधिकार हो जाने पर भारत के ऊपर सैनिक दबाव डालने का रास्ता खुल गया और भारत की प्रतिष्ठा भी संसार के देशों में गिर गई थी.
- भारतीय एकता एवं अखंडता के कारण चीन को अनी योजना विफल होती दिखाई दी, क्योंकि कम्यूनिस्अ पार्टी के भारतीयों ने भी चीन की इस कार्यवाहीस का विरोध किया, जिसकी उसे तनिक भी आशा नहीं थी.
- चीन की सेना दरों में बंद हो सकती थी क्योंकि शीत ऋतु में वहां बहुत कम पड़ती है। और दर्रे के लिए मध्य का रास्ता बंद हो जाता है जोकि कम से कम 4 माह तक नहीं खुलता.
भारत चीन युद्ध में भारत की पराजय के मुख्य कारण क्या थे?
- भारतीय सेना को इस बाता का अनुमान नहीं था कि बर्फ से ढकी ऊँची पर्वत श्रृंखलाओं में भी युद्ध लड़ना पड़ सकता है। राजनीतिक नेतृत्व का कर्त्तव्य था कि वह सेना को उत्तर की ओर से चीन के इस बढ़ते हुए खतरे से अवगत कराता रहता और सेना को मानसिक रूप से तैयार रखता.
- भारतीय सेना के पास ऊँचे एवं बर्फीले क्षेत्र में लड़ने के लिए उपयुक्त साधन, शस्त्रास्त्र एवं संचार व्यवस्था नहीं थी.
- चीन को तिब्बत की ओर से चढ़ने में केवल 1 या 2 हजार फीट की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. जबकि उत्तर भारत के मैदानों से इसकी चढ़ाई 12 हजार फीट पर चढ़नी पड़ती है, जिससे हमारे सैनिक शारीरिक रूप से अधिक थकावट अनुभव करते थे.
- भारतीय जासूसी व्यवस्था कमजोर थी. इसी कारण उन्हें चीन की सैनिक गतिविधियों का सही अनुमान ही नहीं था.
- भारतीय नेतृत्व में कुशलता का अभाव था, जिसके कारण हमारे सैनिक भी सही प्रदर्शन हीं एक पाए और संकट की घड़ियों में हमारे सैनिकों को सही लक्ष्य नहीं निर्देशित किया जा सका.
- सेना द्वारा युद्ध के नियमों का पालन नही किया तथा सेनिकों को आदेश निर्देश भी केवल नाम के लिए ही दिए जाते रहे यही कारण भारत चीन से ये युद्ध हार गया था.
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FAQs
Ans- भारत चीन युद्ध 20-10-1962 में शुरू हुआ था. इस युद्ध में चीन की सेना विजय रही.