Biography of Maharathi Karna || महारथी कर्ण की जीवनी,दानवीरता

By | December 26, 2023
Biography of Maharathi Karna
Biography of Maharathi Karna

प्रस्तावना

इस संसार में कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं. जो प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आदर्श पर डिगे रहकर अपने अस्तित्व की पहचान करते हैं. यह भी कहा जाता है, कि प्रतिभा के प्रसून विपरीत परिस्थितियों में ही प्रफुलित होते हैं. ऐसी प्रतिभा को कालजई प्रतिभा कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. वह प्रतिभा थी, दानवीर, वचनपालन, कष्टसहिष्णु, विनम्र, मित्रहेतेसी, सेवाभक्त और सहनशील कुंती पुत्र कर्ण की है. कर्ण की समूची जीवनगाथा उनके भाग्य की क्रूर नियति की गाथा है. जो समस्त सुख सुविधाओं मान सम्मान का अधिकारी होकर भी उन सब से वंचित रहा था. अपने विलक्षण व्यक्तित्व के कारण महाभारत के सभी चरित्रों में अनूठी है. हम यहाँ महारथी कर्ण की जीवनी (Biography of Maharathi Karna). उनका जीवन शंघर्ष और सेवाभक्ती और सहन शक्ति की वो रोचक और अद्भुत जानकारी शेयर करने वाले है. जिसके बारे में आप अब से पहले अनजान थे.

महारथी कर्ण का जीवन परिचय (Biography of Maharathi Karna)

महारथी कर्ण कुन्ती के पुत्र थे, दुर्वासा ऋषि ने कुन्ती की सेवाभक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें एक मंत्र दिया था. जिसका ध्यान करते ही उन्हें तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी. कोतुलवंश कुंती ने प्यूबर्टी में ही उस मंत्र का जाप कर डाला. परिणाम स्वरूप सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म हुआ. समाज के भय से कुन्ती ने उस पुत्र को एक पेटी में रखकर नदी में बहा दिया. दिव्य कवच और कुंडल से अलंकृत व तेजस्वी शिशु राजा धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ के हाथ लगा. अधिरथ सूत जाति के थे, उनकी पत्नी राधा ने उस तेजस्वी बालक का लालन-पालन किया. वह उन्हीं के पुत्र कहे जाने लगे. एक सारथी के यहां फलित पोषित करण राज महलों की सुख सुविधाओं से वंचित होते हुए भी राधा और अधिरथ के अतिशय वत्सले में शास्त्र एवं शस्त्र विद्या सीखने में सदैव तत्पर रहते थे.

क्योंकि वह सूर्य पुत्र थे, अतः उनकी महत्वाकांक्षा एवं उनका तेजस्वी व्यक्तित्व हमेशा उन्हें अपने सामर्थ्य से बाहर जाकर कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित करता था. धनुर्विद्या सीखते समय अर्जुन के साथ उनकी प्रतिद्वंदिता हमेशा रही. कुन्ती पुत्र कर्ण अर्जुन से सदैव आगे रहते थे. किंतु सूत पुत्र कर्ण की कितनी योग्यता और प्रतिभा के बाद भी राज पुत्रो के साथ बैठने तक का अधिकार उन्हें नहीं था. इस अपेक्षा ने कर्ण के भीतर एक ऐसी चुनौती विकशित की जिसके बल से उन्होंने धनुर्विद्या में भी असाधारण योग्यता अजीत कर ली. इस योग्यता को भी आचार्य द्रोण ने बहुत समय बाद पहचाना था.

Summary

नामकर्ण
उपनामवासुसेन,अंगराज कर्ण, दानवीर कर्ण, राधेय, सूर्यपुत्र कर्ण, सूतपुत्र कर्ण , कौंत्य कर्ण , विजयधारी , वैकर्तना, मृत्युंजय कर्ण , दिग्विजयी कर्ण
जन्म स्थानमहाभारत काल
जन्म तारीख
वंशकौरव राजवंशी
माता का नाममाता कुंती (लालन पालन कर्ता माँ देवी राधा)
पिता का नामभगवान सूर्यदेव (लालन पालन कर्ता पिता श्री अधिरत)
पत्नी का नामसुप्रिया और वृषाली
उत्तराधिकारीभीष्म पितामह
भाई/बहनयुधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सूर्यपुत्र शनि , सूर्यपुत्र यमराज, राधा पुत्र शोण
प्रसिद्धिकुंती पुत्र, महारथी कर्ण, महान दानी, अंग देश के राजा
रचना
पेशाराजा, धनुधर
पुत्र और पुत्री का नामसत्यसेन, वृषकेतु, चित्रसेन , , सुशेन , द्विपाल , शत्रुंजय , प्रसेन और वनसेन
गुरु/शिक्षकपशुराम
देशभारत
राज्य क्षेत्रअंग देश के राजा
धर्महिन्दू
राष्ट्रीयताभारतीय
भाषासंस्कृत
मृत्युमहाभारत के युद्ध में अर्जुन के बाण से
मृत्यु स्थानकुरुक्षेत्र हरयाणा
जीवन काल
पोस्ट श्रेणीBiography of Maharathi Karna (महारथी कर्ण की जीवनी)
Biography of Maharathi Karna

कुन्ती पुत्र महारथी कर्ण जीवन संघर्ष

एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने अपने द्वारा पारंगत शिष्यों की शस्त्र विद्या का प्रदर्शन रखा. अर्जुन ने दर्शकों के सामने आकर एक से एक कौसल दिखाएं. जिसमें दिव्यास्त्र, अग्नियास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, भौमस्त्र आदि के प्रदर्शन से जनता कथा पांडवजन रोमांचित व आस्चर्जकित थे. तभी मुख्य द्वार से तेजस्वी कर्ण ने अर्जुन को चुनौती देते हुए. उन सभी कौशलों का प्रदर्शन कर दिया जिनको अर्जुन ने करके दिखाया था. दुर्योधन ने तो इस कौसल पर कर्ण स्वागत करते हुए उसे ह्रदय से लगा लिया. और अपना मित्र घोषित करते हुए राज महल में रहने हेतु बुलावा लिया था.

कर्ण और अर्जुन एक बार फिर द्वन्द्व हुआ, जिसमें कुंती ने कर्ण के शरीर का वह तेजस्वी कुंडल देखा. सूर्यपुत्र कर्ण उनका ही पुत्र है, यह जानकर वह अचेत होकर गिर पड़ी. द्रोणाचार्य ने कर्ण को कुलोत्पन कहकर अपमानित किया. सभी पांडव पुत्र उनका उपवास करने लगे, दुर्योधन से यह अपमान देखा नहीं गया. उसने सूर्यपुत्र कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर उनका राज्यअभिषेक कर दिया. दुर्योधन ने कहा आचार्य यह अवश्य ही किसी ऊंचे कुल में जन्मा है. क्योंकि हिरणी के पेट से कभी सिंह पैदा नहीं हो सकता, उत्सव समाप्त हो चुका था.

कर्ण की सेवाभक्ति एवं सहनशक्ति

उत्सव की समाप्ति के पश्चात उपहास से व्यथित कर्ण पशुराम की शरण में चले गए. ब्रह्मास्त्र प्राप्त करने के लिए कुंती पुत्र कर्ण ने अपना गोत्र भृगुवंशी बताया. अविचल गुरुसेवा के कारण परशुराम का हृदय कर्ण ने जीतकर ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर लिया था. 1 दिन की बात है, परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे. तभी कर्ण की जांग पर एक जहरीले कीड़े ने जोर का डंक मारा। जिसके फलस्वरूप रक्त की धारा बह निकली कर्ण ने उफ़ न करते हुए पीड़ा को इसलिए सहन किया, ताकि गुरु की नींद में खलल न पड़े और जांघ को हिलाया तक नहीं.

नींद खुलने पर खून के धब्बे देखकर परशुराम ने पूछा तो करने सारा वृत्तांत कह डाला. परशुराम ने कर्ण से कहा धन्य है, तुम्हारी गुरु सेवा और सहनशीलता तुम निश्चित ही कोई क्षत्रिय बालक हो. कर्ण सारी सच्चाई कह डाली. क्रोधी परशुराम ने कर्ण को श्राप दे डाला कि तुम्हें यह ब्रह्मास्त्र अपने समक्ष योद्धा के साथ युद्ध करते तब याद रहेगा. किंतु आवश्यकता पड़ने पर तुम इसे भूल जाओगे. तुम्हारे जैसे असत्य वासी के लिए आश्रम में कोई जगह नहीं है. गुरु के चरणों में अंतिम बार शीश नवाकर कर्ण आश्रम से बाहर चला गया.

महारथी कर्ण का वचन पालन

महाभारत के युद्ध में कर्ण के हाथों अर्जुन की मृत्यु की आशंका से भयभीत कुंती ने कर्ण से वचन मांगा. कि तुम कौरवों को छोड़कर पांडवों के पक्ष में आ जाओ. तुम सुतराज अधिरथ के पुत्र नहीं सूर्यपुत्र हो. यह सुनकर कर्ण सन्न रह गया. फिर भी उसने अपनी माता से का मां तूने मेरे साथ बड़ा ही अन्याय किया है. जीवन भर इसके फलस्वरूप मैंने कितनी यंत्रणा, अपमान तथा लोगों का उपवास सहन किया. तब आपका मातृत्व कहाँ सो गया था. आपने मेरे साथ जो कुछ भी किया है, वह तो कोई अपने शत्रु के साथ भी नहीं करेगा. कुंती ने कहा कर्ण में तेरे प्रति माता के कर्तव्य का पालन न करने की वजह से ग्लानि का अनुभव करती हूं. ऐसा कहकर कुंती खाली हाथ जाने को उद्द्त हुई. कर्ण ने कहा मां ठहरो मेरे पास से तुम खाली हाथ नहीं लौटेगी.

मैं तुम्हें वचन देता हूं, कि मैं तुम्हारे एक पुत्र अर्जुन को छोड़कर किसी और पुत्र को नहीं मारूंगा. यदि अर्जुन बच गया तो मैं नहीं यदि मैं बच गया तो अर्जुन नहीं. किसी भी स्थिति में तुम्हारे पास पांच पुत्र बने रहेंगे. महाभारत के युद्ध क्षेत्र में जब कर्ण अपने रथ का घसा हुआ पहिया निकाल रहा था. तब अर्जुन ने दिव्याशास्त्रों की वर्षा करते हुए करण का वध कर दिया था. इस तरह कर्ण ने अपने सामर्थ्य के होते हुए भी कुंती के पुत्रों को घायल करके छोड़ दिया था. पर किसी का वध न करके अपनी माता को दे दिए हुए वचन का पालन किया था.

महारथी कर्ण की दानवीरता

देवताओं के राजा इंद्र ने अर्जुन के एकमात्र प्रतिद्वंदी कर्ण के शक्ति और प्रभाव को कम करने के लिए कर्ण से कवच और कुंडल छीनने की एक योजना बनाई. सूर्यदेव ने स्वप्न में दर्शन देकर करण से कहा यह कवच कुंडल तुम्हारे प्राण रक्षक हैं. इसे तुम कभी किसी को न देना. दान के बदले तुम ब्राह्मण वेशधारी से आमोध शक्ति मांग लेना. भविष्यवाणी के अनुसार ब्राह्मण वेशधारी इंद्र ने कर्ण से कुंडल और कवच मांगा. कर्ण ने कहा यह मेरे शरीर का अंग है, यदि इसे मैं आपको दे दूंगा तो जीत कैसे रहूंगा. मैंने अपने मित्र दुर्योधन का साथ निभाने का वचन दिया है.

उस मित्र का उपकार चुकाने के लिए मुझे जीवित रहना पड़ेगा. किंतु ब्राह्मण की हठ के आगे कर्ण ने कवच और कुंडल दे दिए तथा इंद्र से आमोध शक्ति मांग ली. कुंती को दिए गए वचन अनुसार इसका उपयोग एक बार करना था. अतः आमोध ने इसका उपयोग नहीं करते हुए, उसे निरर्थक कर दिया. और अपने जन्मजात कवच कुंडल अपने शरीर से काट कर दान में इंद्र को दे दिए.

कर्ण की विनम्रता

कर्ण वीर और महादानी होने के साथ-साथ विनम्र भी थे. भीष्म पितामह को शरशैय्या पर देख कर दुख और गिलानी से भरे उनके पास हाथ जोड़कर खड़े हुए. और बोले मैं अधिरथ पुत्र आपसे अपने किए हुए जाने-अनजाने अपराधों के लिए क्षमा चाहता हूं. कर्ण की इस विनम्रता से प्रभावित होकर भीष्म पितामह ने कहा तुम सूर्यपुत्र हो, कुंती तुम्हारी माता है. तुम अर्जुन की तरह पराक्रमी और वीर हो. दुष्ट तुम्हारा बल और संगति पाकर भरत वंश का विनाश कर रहे हैं. तुम्हें विनाश से बचाकर इस सृष्टि की रचना करनी है. वीर महारथी कर्ण ने विनम्रता पूर्वक इसे स्वीकार किया.

महारथी कर्ण का सच्चा धर्म

गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद वीर कर्ण ने कौरवों के सेनापति होने का दायित्व वहन किया. उसने अपनी मां कुंती को दिए हुए वचन का बखूबी पालन किया. मित्र दुर्योधन के प्रति भी मित्र धर्म का निर्वाह किया. इस प्रकार उसने मातृधर्म, भातृधर्म, मित्रधर्म, गुरुधर्म का पालन कर अपने प्राण त्यागे.

उपसंहार

महाभारत की समस्त कथा व घटनाओं का अध्ययन करने पर निश्चित ही महारथी, महादानी, महावीर, महादानी कर्ण का चरित्र सभी को आकर्षित करता है. उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार, उपहास का सामना करते हुए भी उन्होंने अपने चारित्रिक आदर्श को बनाए रखा वह भी प्रेरणा का स्रोत है. उच्च कुल में जन्मे कर्ण ने निम्न कुल में रहकर भी अपने जिन मानवोचित, वीरोचित गुणों और आदर्शों की रक्षा की वह अनुपम तथा विलक्षण है.

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FAQs

Q- महारथी कर्ण का दाह संस्कार किसने किया था?

Ans- महारथी कर्ण का दाह संस्कार दुर्योधन ने कृष्ण के हाथों पर किया था.

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