दोस्तों 1857 की क्रांति तो बैरकपुर बंगाल से शुरू हुई थी. पर वास्तव में सन 1857 के महासमर में राजस्थान के वीर सपूतों ने भी अपनी अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया था. और अंग्रेजों का मान मर्दन करते हुए इस महायज्ञ में अपनी आहुति दी थी. विशेष स्वतंत्रता योद्धाओं में पाली जिले का एक छोटा सा ठिकाना आउवा. यहाँ के ठाकुर खुशाल सिंह का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है. जिन्होंने अपनी देशभक्ति को इतिहास में स्वर्णिम प्रश्नों में अंकित करवा दिया. हम यहाँ ठाकुर कुशाल सिंह जी की जीवनी (Biography of Thakur Kushal Singh). और उनसे जुड़े रोचक तथ्य आपके साथ साझा कर रहे है. इस लिए दोस्तों इस पेज को ध्यान से और अंत तक जरूर पढ़े.
कुशाल सिंह चंपावत कौन थे?
दोस्तों ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत 1857 की क्रांति का वीर नायक था , जिसने 18 सितंबर 1857 चेलावास यूद्ध में पॉलिटिकल एजेंट मैक मोसन का सर काटकर आउवा किले के दरवाजे पर लटका दिया था. कुशाल सिंह चंपावत काफी समय पहले से ही अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष करने का निश्चय कर चुके. क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की थी. नाना साहब पेशवा तथा तथा तात्या टोपे पर से उनका संपर्क हो चुका था. 1857 में मारवाड़ में स्वतंत्रता संग्राम उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया.
Summary
नाम | ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत |
उपनाम | आउवा नरेश ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत |
जन्म स्थान | आउवा, जोधपुर |
जन्म तारीख | 1830 |
वंश | चम्पावत |
माता का नाम | — |
पिता का नाम | — |
पत्नी का नाम | — |
भाई/बहन | पृथ्वीसिंह |
प्रसिद्धि | चेलावास यूद्ध में पॉलिटिकल एजेंट मैक मोसन का सर काटकर आउवा किले के दरवाजे पर लटका दिया |
रचना | — |
पेशा | शासक, स्वतंत्रता सेनानी |
पुत्र और पुत्री का नाम | — |
गुरु/शिक्षक | — |
देश | भारत |
राज्य क्षेत्र | राजस्थान, हरयाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश |
धर्म | हिन्दू |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
भाषा | राजस्थानी, मारवाड़ी, हिंदी |
मृत्यु | 1864 |
जीवन काल | 34 वर्ष |
पोस्ट श्रेणी | Biography of Thakur Kushal Singh (आउवा ठाकुर कुशल सिंह की जीवनी) |
आउवा के वीर कुशाल सिंह चंपावत का 1857 की क्रांति में क्या योगदान था?
जोधपुर नरेश तख़्त सिंह अंग्रेजों का पिट्ठू था. इस समय एक अंग्रेज सेना जोधपुर लीजन में रखी गई थी. इस सेना की छावनी जोधपुर से कुछ दूर एरिनपुरा में थी. कुशाल सिंह ने अंग्रेजों और जोधपुर महाराजा की संयुक्त तथा तोप खाने से लैस सेना को कई बार धूल चटाई थी.
कुशाल सिंह ने अपने संगठन कौशल के बल पर मारवाड़ के आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह, आलनियावास के ठाकुर अजीत सिंह एवं लांबिया के ठाकुर पृथ्वी सिंह आदि अपनी सेना सहित आउवा आ गए. इतना ही नहीं मेवाड़ के सलूम्बर, कोठारिया, रूपनगर, लसाणी,आसींद आदि के शासकों ने अपने-अपने स्वतंत्रता सेनानी आउवा भेजें. उन्हीं के प्रयासों से एरिनपुरा जोधपुर में सैनिक छावनी के सैनिक भी स्वतंत्रता का बिगुल बजाकर कुशाल सिंह से आ मिले. इस प्रकार आउवा स्वाधीनता सैनिकों की विशाल छावनी बन गया. स्वतंत्रता प्रेमी योद्धाओं ने मिलकर ठाकुर कुशाल सिंह को अपना प्रमुख चुन लिया.
इस क्रांतिकारी सेना को दबाने के लिए अंग्रेजों के कहने पर जोधपुर नरेश ने अनाड़ सिंह के नेतृत्व में एक विशाल सेना आउवा पर आक्रमण करने के लिए भेजी. अंग्रेज सेना पति हीथकोट भी आउवा से पहले ही जोधपुर की सेना से आ मिला. आउवा पर आक्रमण से पूर्व क्रांतिकारी अंग्रेज सेना से लोहा लेने के लिए आगे बढे. अंग्रेज एवं जोधपुर सेना के मुकाबले के लिए ठाकुर कुशाल सिंह के समर्थन में आसोप, अलनियावास, मंडावा झुंझुनू , लांबिया एवं सलूम्बर आदि के ठाकुरों की सेनाएं आउवा पहुंच चुकी थी.
बीथोड़ा गांव का युद्ध (8 सितंबर 1857)
8 सितंबर अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी को भी बीथोड़ा गांव के पास क्रांतिकारी सेनाओं ने अंग्रेजों और जोधपुर राज्य की संयुक्त सेना पर आक्रमण कर दिया. दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ जिसमें क्रांतिकारी सेना को विजय प्राप्त हुई. इस युद्ध में अनाड़ सिंह मारा गया और अंग्रेज सेनापति हीथकोट भाग खड़ा हुआ. जोधपुर की सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा यह समाचार पाकर जाट लॉरेंस ब्यावर से एक विशाल सेना लेकर आउवा पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा. इस बार जोधपुर का पोलिटिकल एजेंट मार्क्स में सन भी अपनी सेना के साथ लॉरेंस के साथ हो गया था.
चेलावास का युद्ध (18 सितंबर 1857)
बिठौड़ा के युद्ध में मिली हार के पश्चात जॉर्ज लॉरेंस ने 18 सितम्बर, 1857 ई. को आऊवा के किले पर आक्रमण किया। 18 सितंबर 1857 को अंग्रेजों की विशाल सेना ने आउवा पर आक्रमण कर दिया. अंग्रेजों के आने की खबर लगते ही ठाकुर कुशाल सिंह अपने साथी सैनिक के साथ किले से बाहर आए और. अंग्रेजों पर टूट पड़े चेलावास के पास घमासान युद्ध हुआ जिसमें लॉरेंस बुरी तरह पराजित हुआ. और भाग गया परंतु मॉक मेसन इस युद्ध में मारा गया क्रांतिकारियों ने उसका सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया. और सिर को आउवा में घुमाया गया तत्पश्चात उसे किले के दरवाजे पर लटकाया दिया.
अंग्रेजी सेना और आऊवा के बिच हुए इस युद्ध को गोरे-काले का युद्ध भी कहते है. इस युद्ध में स्वतंत्रता प्रेमियों के ठाकुर खुशाल सिंह के नेतृत्व में अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया. उनकी वीरता का बखान 165 वर्ष बीत जाने के बाद आज भी आउवा में लोकगीतों में किया जाता है एक लोकगीत इस प्रकार है-
ढोल बाजे, चंग बाजै,भलो बाजे बाँकियो।
एजेंट को मार कर, दरवाजे पर टाँकियो।
झूझे आहूवो ये झूझे आहूवो, मुल्का में ठावो हियो आहूवो।।
आऊवा का युद्ध (20 जनवरी, 1858)
आऊवा का युद्ध में गवर्नर लार्ड कैनिंग ने कर्नल होम्स के नेतृत्व में एक सेना आऊवा भेजी. इस समय तक आऊवा के आधे विद्रोही सैनिक दिल्ली पहुंच चुके थे. तथा अंग्रेज़ो ने आसोप, गूलर तथा आलणियावास की जगीरो पर अधिकार कर लिया था. जब ठाकुर कुशाल सिंह को विजय की कोई उम्मीद नहीं रही. तो उन्होंने आऊवा के किले का भार अपने छोटे भाई पृथ्वीसिंह को सौंप दिया और वह सलूम्बर चले गए. 15 दिनों बाद अंग्रेज़ो ने आऊवा पर अधिकार कर लिया था.
ठाकुर शिवनाथ सिंह के नेतृत्व में दिल्ली जाने वाली क्रांतिकारियों की फौज के युद्ध
इस प्रकार आउवा में अंग्रेजों के विरुद्ध एक मजबूत मोर्चा बन गया क्रांतिकारियों ने जोधपुर को अंग्रेजों से छुड़ाने का निश्चय किया. इसी समय दिल्ली में क्रांतिकारियों की स्थिति कमजोर होने के समाचार कुशाल सिंह को प्राप्त हुए. सभी प्रमुख लोगों से विचार-विमर्श करने के बाद सेना का एक बड़ा भाग दिल्ली के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिकों की सहायता के लिए भेजा गया. बाकि सेना से आउवा की मजबूत मोर्चाबंदी की गयी. आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह के नेतृत्व में दिल्ली जाने वाली फौज भेजी गयी.
ठाकुर शिवनाथ सिंह ने तीव्र गति से प्रस्थान किया और रेवाड़ी पर अपना अधिकार कर लिया. उधर अंग्रेज भी मुक्तिवाहनी सेना पर नजर रखे हुए थे. नारनौल के पास विर्गेडियर गेर्राड ने क्रांतकारियों पर आक्रमण कर दिया. यह आक्रमण अचानक हुआ, अंत भारतीय सेना की मोर्चा बंदी टूट गयी. इसके बाद घमासान युद्ध हुआ जिस में कई अंग्रेज मारे गए थे.
1857 की क्रांति में ठाकुर कुशाल चम्पावत का क्या योगदान रहा?
ठाकुर कुशाल सिंह के संघर्ष ने मारवाड़ का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरो में अंकित करा दिया. वह पूरे मारवाड़ के लोकप्रिय जननायक हो गए थे. जनता का उन्हें भरपूर सहयोग तथा समर्थन प्राप्त हुआ. लॉरेंस तथा होम्स की सेनाओं पर मार्ग में आने वाले गांवों के ग्रामीणों ने जहां मौका मिला आक्रमण किया. इस पूरे अभियान में क्रांतिकारियों का नाना साहब और तात्या टोपे से संपर्क बना हुआ था. इसलिए जब दिल्ली में क्रांतिकारी सेना की स्थिति कमजोर हो गई.
तब ठाकुर कुशाल सिंह ने सेना के एक बड़े भाग को दिल्ली भेजा था. जनता ने इस संग्रह को अंग्रेजों के विरुद्ध किए किया जाने वाला स्वाधीनता का संघर्ष माना. और मारवाड़ के स्वतंत्रता संग्राम के महानायक ठाकुर कुशाल सिंह को अपने लोकगीतों में अमर कर दिया. उस समय के कई लोग गीत भी जनता में बहुत प्रिय हैं.
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FAQs
Ans- काले गोरे का युद्ध 18 सितम्बर, 1857 ई. को चेलावास में हुए युद्ध को कहाँ जाता है.