Biography Of Arjun || धनुर्धर अर्जुन की जीवनी, श्राप, धनुर्धर

By | December 26, 2023
Biography Of Arjun
Biography Of Arjun

अर्जुन महाभारत के मुख्य पात्र हैं, अर्जुन महाराज पाण्डु एवं रानी कुन्ती के तीसरे पुत्र थे. उनको एकलव्य के बाद दुनिया का सबसे अच्छा तीरंदाज माना जाता है. वे द्रोणाचार्य के शिष्य थे. अर्जुन का चरित्र विशेष रूप से सभी को आकर्षित करता है. उनको पार्थ, किरीटी, सव्यसाची, धनंजय, गाण्डीवधारी, गुणाकेश न जाने कितने ही नामों से जाना जाता है. वे श्रेष्ठ धनुर्धर थे, द्रौपदी को स्वयंवर में जीत लाने वाले वीर थे. भगवान श्री कृष्ण के सखा थे अर्जुन. हम यहाँ अर्जुन की जीवनी (Biography Of Arjun). और उनकी वो रोचक जानकारी शेयर करने वाले है. जिसके बारे में आप अबसे पहले अनजान थे. तो दोस्तों चलते है और जानते है महान धनुर्धारी पांडव पुत्र अर्जुन की अद्भुत जानकारी.

महाभारत काल में भीष्म पितामा, कर्ण, अर्जुन का चरित्र अपने श्रेष्ठ मानवीय गुणों के कारण विशेष महत्त्व रखता है. जिसके सखा एवं सारथी भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हों, वह कितना श्रेष्ठ हो सकता है ? यह अर्जुन का चरित्र ही प्रत्यक्ष प्रमाण देता है. भगवान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन के अज्ञानजनित मोह को इस प्रकार नष्ट किया कि उनके सारे भेद, सारे संशय, सारी शंकाएं समाप्त हो गयीं थी. धनंजय, गुणाकेश, सव्यसाची अर्जुन अपने सभी रूपों में सभी को आकर्षित एवं प्रभावित करते हैं.

अर्जुन कौन थे? धनुर्धारी अर्जुन का जीवन परिचय

कुंती पुत्र अर्जुन का जन्म ऋषि दुर्वासा के दिए मंत्र के खास प्रयोग से हुआ था. पाण्डू और कुंती ने इस वरदान का प्रयोग किया और धर्मराज, वायु और इंद्रा देवता का आवाहन किया जिससे उन्हें तीन पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की प्राप्ति हुई थी. कुंती के तीसरे नंबर के पुत्र अर्जुन जो देवताओं के राजा इन्द्र से हुए. अर्जुन एकलव्य के बाद दुनिया के सबसे अच्छे धनुर्धर और द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे. जीवन में अनेक अवसर पर उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनुर्धारी होने का परिचय दिया था. इनको पार्थ, किरीटी, सव्यसाची, गाण्डीवधारी, गुणाकेश, धनंजय के नाम से भी जाना जाता है. धनुर्धर अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था और शादी की थी. महाभारत के कुरूक्षेत्र युद्ध में ये भी एक प्रमुख योद्धा थे. अर्जुन लगभग 125 वर्ष 02 महीने इस मायावी संसार में जीवित रहे.

पाण्डु की मृत्यु के बाद कुन्ती हस्तीनपुर लौट आयी थी। पाण्डु पुत्रों ने गुरु द्रोणाचार्य जी से अस्त्र विद्या सीखी थी. गदा युद्ध में भीम व दुर्याधन, रथयुद्ध में युधिष्ठिर, अस्त्र विद्या के गुप्त रहस्यों की जानकारी में अश्वत्थामा, तलवार चलाने में नकुल व सहदेव ने विशेष दक्षता प्राप्त की थी. धुनष-बाण चलाने में अर्जुन की प्रवीणता इतनी थी, कि वह रात के अंधेरे में भी बाण चलाने और सही निशाना भेदने में सक्षम थे.

Summary

नामअर्जुन
उपनामधनंजय, पार्थ, सव्यसाची, गांडीवधारी, गुणाकेश, किरीटी
जन्म स्थानहस्तिनापुर के जंगल
जन्म तारीखलगभग 5000 वर्ष पूर्व
वंशचन्द्रवंश
माता का नामकुन्ती
पिता का नामइंद्रदेव
पत्नी का नामउलूपी, सुभद्रा, चित्रांगदा और द्रौपदी
उत्तराधिकारीईरावान व भ्रुवाहन और श्रुतकीर्ति
भाई/बहनभीमसेन, नकुल और सहदेव, कर्ण, युधिष्ठिर
प्रसिद्धिमहाभारत विजय व हस्तिनापुर के राजा
रचना
पेशाक्षत्रिय, राजा
पुत्र और पुत्री का नामअभिमन्यु, ईरावान व भ्रुवाहन और श्रुतकीर्ति
गुरु/शिक्षकभगवान श्री कृष्ण
देशभारत
राज्य क्षेत्रउत्तर प्रदेश, हरयाणा, बिहार, उत्तराखंड, हिमाचल
धर्महिन्दू सनातन
राष्ट्रीयताभारतीय
भाषाहिंदी, संस्कृत
मृत्यु
मृत्यु स्थानस्वर्ग लोक
जीवन काल
पोस्ट श्रेणीBiography Of Arjun
Biography Of Arjun

धनुर्धारी अर्जुन के अन्य नाम धनंजय, पार्थ, सव्यसाची, गांडीवधारी, गुणाकेश, किरीटी कैसे पड़े?

पाण्डु की ज्येष्ठ पत्नी वासुदेव कृष्ण की बुआ कुंती थी. जिसने इन्द्र के संसर्ग से अर्जुन को जन्म दिया था. अर्जुन की माँ कुंती का एक नाम पृथा था, इसलिए अर्जुन ‘पार्थ’ भी कहलाए. बाएं हाथ से भी धनुष चलाने के कारण ‘सव्यसाची’ और उत्तरी प्रदेशों को जीतकर अतुल संपत्ति प्राप्त करने के कारण ‘धनंजय’ के नाम से भी प्रसिद्ध हुए थे.

क्या अर्जुन दुनिया के श्रेष्ठ धनुर्धर थे?

दोस्तों अर्जुन को धनुर्विद्या में एकलव्य के बाद इस संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है. एक बार तो गुरु द्रोणाचार्य जी ने सभी पाण्डु पुत्रों की परीक्षा ली थी. उन्होंने अपने शिष्यों को पेड़ पर बैठी चिड़िया की आंख को निशाना बनाने को कहाँ था. इस परीक्षा में अर्जुन ही सफल रहे, उनमें जो एकाग्रता थी, वह किसी में नहीं थी. और एकलव्य को तो गुरु द्रोणाचार्य जी सूत पुत्र होने के कारण अपने आश्रम में शिक्षा नहीं दी थी. इस लिए यह परीक्षा अर्जुन ने जीती थी. अर्जुन विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता था. पांडव और कौरव दोनों पुरुवंशी थे, अर्थात् उनका वंश महाराजा ययाति के पुत्र पुरू से चला था, जो खुद चंद्रवंशी क्षत्रिय थे.

अर्जुन गुरु भक्त थे?

कहाँ जाता है अर्जुन महान् गुरुभक्त भी थे. पांचाल देश के राजा द्रुपद, जो कि गुरु द्रोणाचार्य जी के बचपन के मित्र भी थे. एक बार ऐसे ही उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य जी को नहीं पहचाना और उनका अपमान भी किया था. इस बात के अपमान से तिलमिलाये गुरु द्रोणाचार्य ने द्रुपद से बदला लेने की ठान ली. उन्होंने कौरवों और पाण्डवों की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त सभी को इकठा करके कहा. पांचाल नरेश द्रुपद को कौन पकड़कर मेरे सामने ला खड़ा करेगा ? जो ऐसा करेगा, वही मेरी गुरुदक्षिणा होगी.

गुरु द्रोणाचार्य जी का आदेश पाते ही कौरवों और पाण्डवों में इस बात को लेकर होड़ सी लग गयी थी की. पांचाल देश के राजा राजकुमार और द्रुपद को पकड़ने कौरव अपनी सेना लेकर सबसे पहले पहुंचे. लेकिन वीर पांचालों से वे हार गये थे. अर्जुन ने सम्पूर्ण स्थिति का पूर्वानुमान लगाया, और तत्पश्चात् भीम, नकुल, सहदेव को लेकर द्रुपद की व्यूह रचना में घुस गये. और असाधारण फुर्ती तथा पूरी चतुराई से उनके सारथी को घायल कर दिया. और राजकुमार द्रुपद को बंदी बनाकर गुरु द्रोणाचार्य को उनकी गुरुदक्षिणा अर्पित की थी.

अर्जुन द्रौपदी स्वयंवर के विजेता कैसे बने थे?

दोस्तों कहाँ जाता है, द्रौपदी अप्रतिम सुन्दरी थी. पांचाली, कृष्णा, याज्ञासेनी नाम से प्रसिद्ध द्रौपदी के स्वयंवर हेतु राजा द्रुपद ने कुछ प्रतियोगिताएं रखी थीं. उनमें से एक थी चक्राकार यन्त्र में फंसी हुई मछली की आंख को निशाना बनाना था. वहां एक से बढ़कर एक बलवीर और योद्धा जैसे जरासंध, शिशुपाल और शल्य इसमें असफल रहे. महान धनुर्धर कर्ण को तो सूतपुत्र कहकर अयोग्य घोषित किया गया था. इसी बीच श्री कृष्ण जी ने अज्ञातवास में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन को संकेत दिया था. अर्जुन ने पांचों बाणों से लक्ष्य को भेद डाला और द्रुपद पुत्री द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली. इस प्रकार अर्जुन ने द्रौपदी स्वयंवर में जीत हासिल की थी.

धनुर्धर अर्जुन को श्राप कब और किसने और क्यों दिया था?

जब अर्जुन के साथ रथ पर बैठे भगवान इन्द्र का स्वर्ग में भव्य स्वागत हुआ था. इन्द्रपुरी की अप्सराओं, गन्धर्वो, किन्नरों का विलक्षण व मोहित कर देने वाला नृत्य चला, तो अर्जुन वहां की निराली शोभा में खो से गये थे. वहां रहकर उन्होंने गायन, वादन व नृत्य की शिक्षा लेनी प्रारम्भ कर दी. एक दिन वे इन्द्रसभा में सोने की तैयारी कर रहे थे. तभी द्वारपाल ने आकर सूचना दी कि स्वर्गलोक की अनुपम सुन्दरी उर्वशी आपकी सेवा में उपस्थित हुई है. उर्वशी ने अर्जुन के समक्ष अपना समर्पण स्वेच्छा से चाहा था. उसने आते ही अर्जुन से कहा आप मुझे पत्नी की भांति स्वेच्छा से स्वीकार कीजिये.

उसके इस अनुरोध पर अर्जुन ने उर्वशी से कहा शिव ! शिव ! आप क्या कह रही हैं. आप तो माता कुन्ती गांधारी व माद्री की तरह मेरे लिए पूजनीय हैं. स्वर्गलोक की अनुपम सुन्दरी उर्वशी ने अपनी मादक मुसकान बिखेरते हुए कहा आप तो अच्छा नाटक कर लेते हो. नृत्य भवन में तो आप मुझे घूर-घूरकर देख रहे थे. अर्जुन ने उत्तर दिया मैं तो आपकी नृत्यकला का कायल हूं देवी. अर्जन के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर उर्वशी आगबबूला हो गयी और बोली. मुझ कामपीड़ित सुन्दरी का अपमान कर आपने अच्छा काम नहीं किया है. मैं आपको शाप देती हूं कि आप नपुंसक हो जाये.

अर्जुन अपनी समस्या लेकर किसके पास गए?

शापग्रस्त अर्जुन अपनी समस्या लेकर गन्धर्वराज चित्रसेन और अपने पिता इन्द्र के पास गये. क्योंकि भगवान इन्द्र तथा चित्रसेन ने ही उसे अर्जुन के पास भेजा था. भगवान इन्द्र ने इसका समाधान किया कि एक वर्ष तक तो तुम्हें भोगना ही होगा. एक वर्ष के तुम्हारे अज्ञातवास में तुम्हें नपुंसक (वृहन्नला) बनकर रहना होगा. जो कि तुम्हारे गुप्त वास में अत्यन्त उपयोगी होगा. तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास में यही नपुंसकता तुम्हारे काम आयेगी.

वनवास का बारहवां वर्ष पूर्ण हो चला था. तेरहवां वर्ष अज्ञातवास का था. इस अवधि में पांडवो के सभी भाई किसी न किसी का रूप लेकर जीवन यापन कर रहे थे. युधिष्ठिर ने कंक का, भीम ने रसोइए का, द्रौपदी ने सैरंध्री तथा विराट की पटरानी की सेविका का, नकुल और सहदेव ने ग्वालों का, अर्जुन ने स्त्री वेश में वृहन्नला का रूप धारण किया. विराट नगर के राजा-रानी ने किन्नर बृहन्नला (अर्जुन) का गायन-वादन, नृत्य देखा, तो उन्होंने अपनी बेटी उत्तरा को नृत्य सिखाने हेतु अर्जुन को इस काम के लिए नियुक्त कर दिया था.

पांडवों के भेष बदलने का पता दुर्योधन को कैसे पता चला?

इधर दिन-महीने बीतते गये, एक वर्ष पूर्ण होने को था. द्रौपदी {सैरंध्री} पर कुदृष्टि डालने वाले विराट नगर के बलवान सेनापति कीचक की मृत्यु हो गयी थी. कीचक वध और सैरंध्री सुन्दरी का वृत्तान्त सुनकर दुर्योधन के मन में यह सन्देह हो चला था कि हो न हो वहां पांचों पाण्डव है. दुर्योधन ने त्रिगत के राजा सुशर्मा और कर्ण को राजा विराट को पकड़ लाने हेतु भेजा. इधर विराट नगर के राजा की अनुपस्थिति में उसके पुत्र उत्तर पर कौरवों की सेना का आक्रमण कर दिया था. पांडवो के पांचो पुत्र भीम, नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर सब वीरतापूर्वक लड़े. किन्नर बने अर्जुन का शाप निष्प्रभावी हो चला था.

अर्जुन के अतुलनीय तेज पराक्रम के आगे कौरवों की सेना पराजित हुई थी. विराटनगर के राजा की विजय हुई, अन्त में पाण्डवों का भेद खुला, तो राजा विराट ने उन्हें अपार धन-सम्पदा देकर उनका सम्मान किया. अतुल्य धन सम्पदा के प्राप्त करने के कारण अर्जुन को धनंजय के नाम से भी जाना जाता है. राजा विराट नगर के राजा ने राजकुमारी उत्तरा का विवाह अर्जुन से प्रस्तावित किया, तो अर्जुन ने उसे अभिमन्यू के लिए स्वीकृत किया. इस तरह पराक्रमी अर्जुन ने अपना पराक्रम दिखाकर राजा विराट को प्रभावित किया था.

क्या अर्जुन के सखा थे भगवान श्री कृष्ण?

धनुर्धर अर्जुन भगवान् श्री कृष्ण के प्रिय सखा मित्र थे. दोस्तों व्यावहारिक दृष्टि से देखे तो अर्जुन के साथ भगवान् श्री कृष्ण का सम्बन्ध सभी स्थलों पर बराबरी का था. खाने-पीने, सोने, आने-जाने में सभी जगह पर भगवान श्री कृष्ण उससे बराबरी का बर्ताव करते थे. श्रीकृष्णा साक्षात् नारायण थे, अर्जुन नर कहे गये हैं. ये नारायण और नर दोनों रूपों में प्रकट एक ही सत्व है. अर्जुन के प्रति भगवान् का कितना प्रेम था, यह इस बात से पता लग जायेगा कि वनविहार, जलविहार, राजदरबार, यज्ञ, अनुष्ठान आदि में श्रीकृष्ण प्राय: अर्जुन के साथ देखे जाते थे. इसमें कोई दो राह ही नहीं है की भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन में विलक्षण प्रेम था.

महाभारत के उपदेश में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था. और दिव्यदृष्टा संजय वर्णित गीता में लिखा है. ने हे अर्जुन तुम मेरे हो और मैं तुम्हारा ही हू अर्थात् जो कुछ है, उस पर तुम्हारा अधिकार है. जो तुमसे शत्रुता रखता है, वह मेरा भी शत्रु है. जो तुम्हारा साथ देने वाला है, वह मेरा भी है. अर्जुन के साथ अपने प्रेम का सम्बन्ध बताते हुए भगवान् कृष्ण ने कहा था.

तव भ्राता मम सखा सम्बन्धी शिष्य एवं च ।

मांसान्युत्कृत्य दास्यामि फाल्गुनार्थे महीपते ।

एष चापि नरव्याघ्रों मत्कृते जीवितं त्यजेत ।

एष न: समस्यात तारयेम परस्परम् ।।

अथार्थ हे राजन् ! आपके भाई अर्जुन मेरे पुत्र हैं, सम्बन्धी हैं, शिष्य हैं. मैं अर्जुन के लिए अपने शरीर का टुकड़ा तक काटकर दे सकता हूं. और धनुर्धर अर्जुन भी मेरे लिए प्राण दे सकते हैं. हे तात ! हम दोनों मित्रों की एक प्रतिज्ञा है कि परस्पर एक दूसरे को संकट से उबारें.

महाभारत युद्धक्षेत्र में भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को कैसे बचाया था?

महाभारत युद्धक्षेत्र में भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी मोहिनी शक्ति से कर्ण के बाणों से अर्जुन को मरने से बचाया था. दुर्योधन ने तो अर्जुन को कृष्ण की आत्मा और कृष्ण को अर्जुन की आत्मा कहा है. भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर सकते हैं. इसी प्रकार धनुर्धर अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिए अपने प्राणों का परित्याग कर सकते है.

भगवान् श्रीकृष्ण और धनुर्धरअर्जुन की आदर्श प्रेम के बहुत से उदाहरण हैं. अर्जुन के इस विलक्षण प्रेम का ही प्रभाव है, जिसके कारण भगवान् को गूढ़-से-गूढ़ ज्ञान को अर्जुन के सामने खोल देना पड़ा था. इस प्रेम का प्रताप है कि परमधाम में भी अर्जुन को भगवान् की अत्यन्त दुर्लभ सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसके लिए बड़े-घड़े ब्रह्मवादी महापुरुष भी ललचाते रहते हैं.

दिव्य शरीर वाले भगवान् श्रीकृष्ण के गीता तत्त्व को समझने के लिए अर्जुन सरीखे इन्द्रियनिग्रही, महान् त्यागी, विलक्षण, ज्ञानी विशेषकर भगवान् के परमप्रिय सखा, सेवक और शिष्य को इस परम फल का प्राप्त होना सर्वथा उचित ही है. अत: जहा योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वहीं गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन भी हैं. वहीं पर श्रीविजय विभूति और अचल नीति है, ऐसा मेरे जैसे अनेक भगतो का मानना है.

धनुर्धर, बुद्धिवीर, युद्धवीर, अर्जुन

जब महाभारत के युद्ध में श्री कृष्णा तथा उनकी अक्षौहिणी सेना की सहायता मांगने दुर्योधन तथा अर्जुन पहुंचे, तो अर्जुन श्रीकृष्णजी के पैरों के पास बैठे थे, और दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने के पास. अर्जुन जानते थे कि योगनिद्रा से उठते ही श्रीकृष्ण की दृष्टि पैरों के पास बैठे अर्जुन पर ही जायेगी, और हुआ भी ऐसा ही. दुर्योधन ने उनसे उनकी बलशालिनी नारायणी सेना माग ली और बुद्धिवीर अर्जुन ने स्वयं नारायण भगवान् श्रीकृष्ण को ही मांग लिया. दुर्योधन प्रसन्नचित्त होकर हस्तिनापुर लौटे. इसके बाद जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से प्रश्न किया: ”अर्जुन ! मैं युद्ध नहीं करूंगा, तब तुमने क्या समझकर नारायणी सेना को छोड़ दिया और मुझे स्वीकारा? तब अर्जुन ने कहा: हे भगवन ! आप अकेले ही सबका नाश करने में समर्थ हैं.

जब कुरुक्षेत्र में गीता का दिव्य उपदेश श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया!

तब मैं सेना लेकर क्या करता ? आप मेरे सारथी बनें. सारथी बनने के बाद युद्धारम्भ के समय कुरुक्षेत्र में गीता का दिव्य उपदेश श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया था. महाभारत का युद्ध अठारह दिन तक चला था. इन अठारह दिनों में युद्ध में अर्जुन ने अपने बाणों और दिव्यास्त्रों का चमत्कार दिखाया था. अर्जुन ने गांधारी के दो पुत्रो, संसप्तक गण, जयद्रथ, कृतवर्मा, सुदक्षिण, वीर श्रुतायुध, अच्युताऊ, नियतायु, दीर्घायु और अम्बष्ठ आदि को मार डाला था.

कौरवो की सेना ने अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की चक्रव्यूह रचना में हत्या कर डाली थी. अपने भाई भीम के साथ मिलकर अर्जुन ने घटोत्कच सेना का वध कर डाला था. द्रोणाचार्य जी पुत्र अश्वत्थामा को अर्जुन ने गुरु पुत्र होने के कारण इस महाभारत के युद्ध में नहीं मारा था. महारथी कर्ण और अर्जुन के बीच निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें दोनों ने ही दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया था. अचानक कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फस गया था.

महारथी कर्ण उसे निकाल पाते, उससे पहले अर्जुन ने श्री कृष्ण के कहे अनुसार कर्ण का वध कर डाला था. कर्ण की मृत्यु के बाद कौरवों की सेना में बचे सत्यवर्मा, सत्येपु, सुशर्मा तथा उसके पैंतालीस पुत्रों को भी यमलोक पहुंचा दिया था. कौरवों की बची हुई सेना का सफाया भी अर्जुन और भीम ने ही किया था. पाण्डवों की विजय के बाद उनके 36 वर्षो के शासनकाल में अर्जुन ने युधिष्ठिर का पूरा साथ दिया था. अपने प्राणसखा श्री कृष्ण के परलोकप्रयाण के बाद अर्जुन का बल सम्भवत: उन्हीं के साथ चला गया था.

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FAQs

Q- अर्जुन की माता का क्या नाम था?

Ans- अर्जुन की माता का नाम कुंती था.

Q- धनुर्धर अर्जुन के पिता का क्या नाम था?

Ans- धनुर्धर अर्जुन के पिता देवता के राजा इंद्र थे.

Q- धनुर्धर अर्जुन और महारथी कर्ण का आपस में क्या रिश्ता था?

Ans- धनुर्धर अर्जुन और महारथी कर्ण की माता कुंती थी, पर पिता अलग अलग थे. कर्ण का जन्म सूर्य भगवान की कृपा से और अर्जुन का जन्म इंद्र भगवान की कृपा से हुआ था. महाभारत के युद्ध में कर्ण कौरवो की तरफ से लड़े थे.

भारत की संस्कृति

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