History of Shekhawati | शेखावाटी का इतिहास, महाराव शेखाजी

By | September 10, 2023
History of Shekhawati
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भगवान रामचंद्र जी से महाराव शेखाजी का क्या संबंध है?

History of Shekhawati- जयपुराधिपति मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र जी के पुत्र कुश कुल सम्भूत सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं. और उनकी लोकविदिति शाखा कछवाहा नाम से इतिहास में विख्यात है. आमेर के राजसिंहासन के तेरहवें अधिपुरुष महाराजा उदयकरणजी जो संवत 1423 से संवत 1445 विक्रमी तक थे. उनके आठ पुत्रों में विशेष प्रतापी तीन हुए. पहले नरसिंह जी, दूसरे बालाजी और तीसरे बरसिंहजी थे. महाराजा उदयकरणजी की मृत्यु के बाद नरसिंह जी आमेर की गद्दी पर विराजमान हुए. और बालाजी एवं बरसिंहजी को बरवाड़ा तथा मौजाबाद नामक गांव कर्म से दिए गए. इनमें बालाजी के अन्यतम भग्त हृदय पुत्र मोकलसिंह की पत्नी श्रीमति निरवाणजी के गर्भ से, प्रबल प्रतापी वीर श्रेष्ठ शेखाजी हुए. जिनके वंशज शेखावत और उनका अधिकृत प्रांत शेखावाटी के नाम से प्रसिद्ध है. बरसिंहजी के पोते नरुजी “नरूका” शाखा के प्रवर्तक हैं. जिनके वंशज मैं अलवर, लावा और उनियारा आदि के अधिपति थे.

महाराव शेखाजी कौन थे?

राव शेखा जी के पिता मोकल सिंह जी बरवाड़ा (आमेर) से कासोदा जाती के जाट अमरा की ढाणी में जा बसे थे. वही पर महाराव शेखा जी का जन्म 1433 में हुआ था. उस ढाणी को वर्तमान में अमरसर कहा जाता है. महाराव शेखा जी के दादा का नाम बालाजी था जो आमेर के राजा के पुत्र थे. और श्री रामचन्द्र जी के वंशज थे. राव शेखा जी ने 16 वर्ष की आयु में अमरसर की राज गदी पर बैठ गए थे. वे न्याय प्रिय सर्वधर्म का सम्मान करने वाले राजा थे. उन्होंने अपने जीवन मे अनेक युद्ध लड़े और हर युद्ध मे विजय हुए. अमरसर जयपुर से लगभग 34 मील उत्तर में है.

गांव का स्वरूप देखकर निकटवर्ती नाण गांव को भी उन्होंने अपने अधिकार में कर लिया था. नाण उस समय तक नापाजी के अधीन था. राव शेखा जी ने वयस्क होते ही अपने बाहुबल का प्रयोग शुरू किया, और विजयश्री ने संपन्न उनका साथ दिया. राव शेखा जी ने एक छत्र राज किया और आज उनके नाम से शेखावाटी भूभाग जाना जाता है. महाराव शेखा जी ने अपना अंतिम युद्ध भी स्त्री सम्मान के लिए लड़ा था.

राव शेखा जी की लड़ाईया

बालाजी के समय से आमेर को प्रतिवर्ष घोड़े भेजने का एक नियम चल रहा था. धीरे-धीरे वह राजनीति कर बन गया, राव शेखा जी ने इस प्रथा को आतमप्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा. उनके हृदय ने कहा आमरे कुटुंब एकता के संबंध से हमारे लिए सम्मान का पात्र है. परंतु अब तो वह राजनीतिक प्रभुत्व का संस्थापक बंद बैठना चाहता है. इसी बात को लेकर एक नहीं आमेर राजा चंद्रसेनजी की राव शेखा जी के साथ से 6 लड़ाई हुई. किंतु अंत में विजय हुए वीर राव शेखा जी. राव शेखा जी ने अपनी अंतिम लड़ाई चंद्रसेनजी से नरुजी का साथ लेकर राजगढ़ में लड़ी थी. और फिर आमेर तक उनका पीछा किया. उस समय अधिकार स्थापन के व्यामोह को छोड़कर चंद्रसेन जी ने शेखा जी को समानता का सम्मान प्रदान करके सुलह कर ली.

इस प्रकार राव शेखा जी ने अपने को स्वतंत्र बना लिया. चंद्रसेनजी जेष्ठ शाखा में होने के कारण राजा और शेखा जी राव कहे जाने लगे. शेखा जी का दूर तक प्रभुत्व स्थापित हो गया था. वे, गो, ब्राह्मण, स्त्री और दीन दुर्बल के सहायक वीर थे. उन्होंने गौड़वाटी में गौड़ राजपूतों से 11 लड़ाइयां लड़ी और अंत में उन्हें एक स्त्री की मान की रक्षा के लिए गौड़ की लड़ाई में ही विजई बनने के बाद वीरगति प्राप्त हुई. रलावता गांव में स्मारक स्वरूप उन पर एक छतरी बनी हुई है. राव शेखाजी आमेर नरेश राजा चंद्रसेनजी के समकालीन थे. राजा चंद्रसेनजी का शासनकाल विक्रम संवत 1524 से 1559 तक था. राव शेखाजी अपने बाहुबल से 360 गांव पर अपना अधिकार स्थापित करने में समर्थ हुए थे.

उस समय राव शेखा के लिए एक कहावत प्रसिद्ध:

गौड़ बुलावें घाटवे, चढ़ आओ शेखा,

थारा लश्कर मरणा, देखण का अभलेखा।

शेखावाटी का इतिहास (History of Shekhawati)

शेखावाटी प्रदेश की स्थापना वीर महाराव शेखा जी ने 1445 ईस्वी में की थी. ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें अमरसर वाटी, झुंझुनू वाटी, उदयपुर वाटी, खंडेला वाटी, नरहड़ वाटी, सिंघाना वाटी, सीकर वाटी, फतेहपुर वाटी, आदि कई भाग उल्लिखित होते रहे हैं. इनका सामूहिक नाम ही शेखावाटी प्रसिद्ध हुआ. शेखावाटी में वर्तमान में झुंझुनू, सीकर, चूरू और नागौर जिले के कुछ भाग आते है. महाराव शेखा जी एवं उनके वंशजों के बल, विक्रम, शोर्य और राज्याधिकार प्राप्त करने की अद्वितीय प्रतिभा का प्रतिफल था. यहाँ के दानी-मानी लक्ष्मी पुत्रों, सरस्वती के अमर साधकों तथा शक्ति के त्यागी-बलिदानी सिंह सपूतों की अनोखी गौरवमयी गाथाओं ने इसकी अलग पहचान बनाई. और स्थाई रूप देने में अपनी त्याग व तपस्या की भावना को गतिशील बनाये रखा. शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भी झुन्झुनू, सीकर का नाम सर्वोपरी है.

राव शेखा के शेखावाटी के प्रबल पराक्रमी, सबल साहसी, आन-बान और मर्यादा के सजग प्रहरी शूरवीरों के रक्त-बीज से शेखावाटी के रूप में यह वट वृक्ष अपनी अनेक शाखाओं प्रशाखाओं में लहराता, झूमता और प्रस्फुटित होता, आज भी अपनी अमर गाथाओं को कह रहा है. शेखावाटी नाम लेने मात्र से ही आज भी शोर्य का संचार होता है. दान की दुन्दुभी कानों में गूंजती है. और शिक्षा, साहित्य, संस्कृति तथा कला का भाव उर्मियाँ उद्वेलित होने लगती है. यहाँ भित्तिचित्रों ने तो शेखावाटी के नाम को सारे संसार में दूर-दूर तक उजागर किया है. यह धरा धन्य है,ऋषियों की तपोभूमि रही है. तो कृषकों की कर्मभूमि। यह धर्म धरा राजस्थान की एक पुण्य स्थली है. जब शेखावाटी का अपना अलग राजनैतिक अस्तित्व था.

तब शेखावाटी की सीमाए इस प्रकार थी.उत्तर पश्चिम में भूतपूर्व बीकानेर राज्य, उत्तरपूर्व में लोहारू और झज्जर, दक्षिण पूर्व में तंवरावाटी और भूतपूर्व जयपुर राज्य तथा दक्षिण पश्चिम में भूतपूर्व जोधपुर राज्य. परन्तु वर्तमान में भौगोलिक सीमाएं चूरू, सीकर और झुंझुनू जिलों तक ही सिमित मानी जाती है. देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर-शाहपुरा, झुंझुनू, सीकर, चीरवा, खेतड़ी, लामिया, नीम का थाना, खंडेला, बिसाऊ, कांसरडा, सुरजगढ, नवलगढ़, मंडावा, मुकन्दगढ़, दांता, खुड, खाचरियाबास, अलसीसर, मलसीसर,लक्ष्मणगढ, सुजानगढ़, डूंडलोद आदि बड़े-बड़े प्रभावशाली संस्थान शेखा जी के वंशधरों के अधिकार में थे.

History of Shekhawati
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राव शेखा के कितने पुत्र थे?

शेखाजी के 12 पुत्र हुए उनके वंशज क्रम इस प्रकार है. (१) दुर्गाजी इनकी संतान टकणेत (२) भरतजी निःसंतान थे (३) तिलोकजी भी निःसंतान थे (४) रतनजी इनकी सन्तान रतनावत (५) आभाजी (६) अचलजी (७) पूरणजी (आभाजी, अचलजी, पूरणजी की सन्तान मुलकपुरिया) (८) प्रतापजी निःसंतान थे (९) कुम्भाजी इनकी संताने सातिलपोता (१०) रिड़मलजी इनकी सन्तान खेजड़ोलिया (११) भारमलजी इनकी सन्तान बागावत (१२) रायमलजी.

राव रायमलजी

राव शेखा के सबसे छोटे पुत्र राव रायमल जी पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर विराजमान हुए. राव रायमल जी का विवाह गौड़ राजपूतों के यहां हुआ था. सांभर के लिए जोधपुर के उस समय राव मालदेव जी और आमेर के राजा भारमल जी की सांभर में लड़ाई हुई थी. उसमें विजई होने के कारण रायमल जी ने बूंदी के हाड़ा राजपूतो के साथ भी एक लड़ाई लड़ी थी. एक सीमा के निर्मित वह गौड़ राजपूतों का पक्ष लेकर राव मालदेव जी से लड़े. राव मालदेव जी ने अपनी पुत्री का विवाह राव रायमल जी के पोते लूणकरण जी के साथ करके प्रेम संबंध स्थापित किया. उन्होंने स्त्री जाति की मान रक्षा के लिए एक दुराचारी मुसलमान नवाब को मार कर उसे अपने किए का फल चखाया था.

नवाब कुछ ऐसा नियम बना बैठा था. कि उसके महल के निकट से कोई स्त्री बिना मुंह दिखाए जाने ना पावे. इस नियम में कितनी शैतानी भरी थी यह बताने की आवश्यकता नहीं है. दिल्ली के शाही तख्त पर बैठने वाले पठान बादशाह शेरशाह सूरी का दादा इब्राहिम उस समय के मेवात जिले के परगने नारनोल के शिमला गांव में (वर्तमान में झुंझुनू जिले के खेतड़ी तहसील ) रहकर सौदागिरी करता था. इब्राहिम का बेटा हसन जो शेरशाह का पिता सौदागिरी छोड़कर सिपाही बना. और बहुत समय तक उसने राव रायमल जी के यहां नौकरी की थी. इसके बाद वह हसन सिकंदर लोदी के अमीर नसीरखा लोहानि के पास बिहार के जिले ससराम में रहने लगा. इसका उल्लेख अकबरनामा में है.

रायमल जी के चार पुत्र हुए (१) सुरजाजी (२) तेजसिंहजी (३) सहसमलजी और (४) जगमालजी, इनमें से तेजसिंहजी ने रेनवाल और नारायणपुर पर कब्जा जमा कर रहे. उनके वंशज तेजसीजी कहलाते हैं. सहसमलजी ने साहीवाड़ और जगमालजी ने मेवात में हाजीपुर, हमीरपुर को अपना निवास स्थान बनाया है. सहसमलजी के वंसज सहसमलजी जी के और जगमाल जी के वंसज दुदावत नाम से परिचित हैं.

राव सुजाजी

जेष्ठ पुत्र सुजाजी अमरसर में पिताजी की गद्दी पर बैठे. परंतु उन्हें गद्दी पर बैठने के सुख का उपभोग रासा टांक ने करने नहीं दिया. उसके आक्रमण पर राव सुजाजी अमरसर छोड़ने को बाध्य हुए. और बानसूर के पास बसई गांव बसा कर रहने लगे. वहां उन्होंने अपने कष्ट के दिन बिताए, और वही बसई में उनका देहांत हुआ. बसई में राव सुजाजी की यादगार में एक छतरी बनी हुई है. राव सुजाजी जी के 5 पुत्र हुए (१) लूणकरणजी, (२) रायसलजी (३) गोपालजी (४) चांदाजी और (५ ) भेरूजी जेष्ठ पुत्र राव लूणकरण जी पिता की गद्दी पर बैठे.

राजा रायसलजी दरबारी

रायसलजी को खानपान के लिए अन्य भाइयों की भांति लाम्या गांव मिला था. राजस्थान में रासा टांक ने पिता से अमरसर छुड़ा दिया, इस दुख को रायसलजी भूले नहीं थे. उन्होंने पहला वीरता का काम यही किया, रासा टांक को मारकर अमरसर पर फिर अपने पिता के नाम का झंडा फहरा दिया. राव लूणकरजी पुनः बसई से अमरसर आ गए. रायसलजी कर्मी पुरुष थे, वे चुपचाप हाथ पर हाथ धरकर बैठने वाले नहीं थे. सौभाग्य निर्माण के उपाय निर्धारण का विचार कर रहे कर ही रहे थे. कि राव लुणकरण से पड़ताड़ित होकर वृद्धि निदान राजनीतिज्ञ मंत्री देवीदास ने उनका आश्रय चाहा. उन्होंने यह जानकर कि वृद्ध मंत्री सहायता का पात्र है. देवीदास को आदर के साथ रख लिया.

देवदास की बुद्धिमानी को राव रायसलजी की वीरता के योग का संयोग होते ही रायसलजी की स्थिति पलट गई. मुगल सम्राट अकबर के दरबार में रायसलजी राजा रायसलजी दरबारी कहलाये. चतुर बादशाह अकबर ने उन्हें वीर और विश्वासी समझ कर अपनी जनानी ड्योढ़ी के प्रधान प्रबंधक का भार सौंपा, वह एक तरह से रायसलजी की अग्नि परीक्षा थी. किंतु राजा रायसलजी दरबारी उसमें सोने की तरह खरे उतरे. गढ़ गागरन (गागरोन फोर्ट) भटनेर और पाटन को उन्होंने जीता एवं एक लाम्या गांव की छोटी सी जागीर से कई परगनो के साथ खंडेला पर भी अपना अधिकार कर लिया.

रायसलजी ने 52 लड़ाईयो में विजय पाई थी. अकबर की मृत्यु के बाद अपने पिता के कृपा पात्र समझकर बादशाह जहांगीर भी राजा रायसलजी दरबारी का बड़ा सम्मान करते थे. राजा रायसलजी 1250 मनसबदारी से शुरू कर ३००० हजारी मनसबदार बने थे. वे वैसे वीर थे, वैसे ही उदार दानी भी थे, भूमि दान किए बिना जल ग्रहण नहीं करते थे. राजा रायसलजी दरबारी विक्रमी संवत 1675 में दक्षिण में स्वर्गवासी हुए. राजा रायसलजी के 12 पुत्रों में पांच तो बचपन में ही काल को प्राप्त हो गए. और बाकी ७ के नाम इस प्रकार हैं. १ लाड़खानजी २ ताजखानजी ३ भोजराजजी ४ तिरमलजी ५ परसरामजी ६ हरीरामजी ७ गिरिधरजी.

जिस प्रकार राव शेखाजी के बाद उनके सबसे छोटे बेटे पुत्र रायमलजी गद्दी पर विराजे थे. उसी प्रकार राजा रायसलजी के बाद उनके सबसे कनिष्ठ (छोटा) पुत्र गिरिधरजी राजा का पद्द धारण कर खण्डेला के राज सिंहासन पर बैठे. और अन्य बेटो ने खान पान के लिए यथायोग्य जमीन जागीर पाई. उस समय प्राय सभी वयस्क होते ही शाही दरबार में चले जाते थे. और वहाँ उनके अधिकार में सेना की जिम्मेदार दे दी जाती थी.

राव भोजराजजी

राजा रायसलजी दरबारी के अन्यतम पुत्र भोजराजजी मुंगल बादशाह के यहां 800 सदी और 400 घोड़े के सेनापति थे. वे पाटन और भटनेर हनुमानगढ़ में स्थित किले में भी शासन अधिकारी रहे. भोजराजजी का प्रधान स्थान तो उदयपुर था. उनके पुत्र थे (१) टोडरमलजी (२) केशरसिंहजी (३) रघुनाथसिंहजी. टोडरमलजी जी पिताजी की गद्दी पर बैठे और केशरसिंहजी और रघुनाथसिंहजी ने जागीर पाई. इनके वंशज कर्म अनुसार धुवाला, कैलाश और नांगल में आबाद है.

टोडरमल जी

टोडरमल जी ने आमेर की मान रक्षा करने का यशवी अर्जित किया था. कागज की आमेर का मारा जाना भी वह देख ना सके थे. और तलवार लेकर कूद पड़े थे, एक बार नहीं कितनी ही बार उन्होंने आमेर पर चढ़ाई करने वालों को अपनी वीरता से छकाया था. उनके संबंध में किसी कवि का कहा पुराना पद है. जो उनकी गुणवाली का परिचय देता है.

तू शेखो तू रायमल तू ही रायासाल।

जयसिंह का दल उजला थासु टोडरमल।।

इसके अतिरिक्त शेखावाटी में और राजस्थान के दूसरे भागों में भी लड़के विवाह के बाद लौटाने के अवसर पर एक गीत गाया जाता है. वह इन्हीं टोडरमल जी की वीरता की गाथा है. टोडरमल जी के पुत्र हुए, (१) श्याम सिंह जी (२) पुरुषोत्तम सिंह जी (३) भीम सिंह जी (४) जुझार सिंह जी (५) हिम्मत सिंह जी (६) भोपतसिंह जी (७) मदन सिंह जी (८) हरनाथ सिंह जी

टोडरमल जी ने अपने राज्य को पुत्रों में सम विभाग से बाट कर बंटवारे की उस घातक कुप्रथा का बीजारोपण किया। जिसने उनके वंशजों की शक्ति को अंत सारसुनय बना दिया। श्याम सिंह जी के वंशज मुख्यतः छापोली छूटने के बाद में मेई मिठोई, रघुनाथ सिंह जी के झाझड़ (नवलगढ़ तहसील का गांव)भीम सिंह जी के मंडावा (झुंझुनू ) धमोरा, कोटडे, देवगांव, हरड़े, हिम्मत सिंह जी के कारी (नवलगढ़ का एक गांव) ईकत्यारपुरा और हरनाथ सिंह जी के रसूलपुर छूटने के बाद बड़वासी, पवाणे तथा बलोदी में बसते हैं. भूपत सिंह जी पूर्व में (बिहार का जिला) गया के पार जा बसे थे. और मदन सिंह जी असमय ही परलोकवासी हो गए. किसी-किसी के मत से मदन सिंह जी बिहार के गया पार चले गए थे. और भूपत सिंह जी के वंश का आगे चलना नहीं माना जाता है.

जुझार सिंह जी

टोडरमल जी के अन्यतम पुत्र जुझार सिंह जी को एक सिद्ध महात्मा ने जिनका नाम गुढ़ेश्वर था. यह आदेश दिया था, कि 3 भेड़िये और एक भेड़ खेजड़ी के वृक्ष के पासमिल जाये वही गांव आबाद करना. जिससे तुम्हारा प्रताप बहुत बढ़ेगा. महात्मा की इस आज्ञा के अनुसार जुझार सिंह जी ने महात्मा के नाम पर गुड़ा गांव बसाया, और स्वयं भी वही रहे. जुझार सिंह जी के गुड्डा को अपना आवास स्थान बनाने के संबंध में एक बात दूसरी तरह वह भी प्रसिद्ध है. कि गुढ़ा जमीदारों का छोटा गांव था, उस गांव का मुखिया वृद्धा था. जुझार सिंह जी से जो स्वतंत्र जीविका की तलाश में उदयपुरवाटी से बाहर चले दिए थे. उसने यह जानकर कि वह टोडरमल जी के पुत्र है.

प्रार्थना कि आप यही रहकर गांव का प्रबंध कीजिए, चोर लुटेरों के दुख में गांव के लोग दुखी थे. प्रार्थना जुझार सिंह जी ने स्वीकार कर ली और सब तरह की सुव्यवस्था स्थापित गुढ़ा के स्वय ही सर्वसा बन गए थे. उनके कारण गुढ़ा गांव की आबादी अच्छी बढ़ गयी. जुझार सिंह जी को गुढ़ा में ही पिता की अवस्था का समाचार मिला. तो बिना विलंब उदयपुरवाटी पहुंचे, उनके पिता अपने अंतिम समय की घड़ियां गिन रहे थे. उन्होंने केड गांव को अपने अधिकार में देखने की अपनी अंतिम इच्छा प्रकट की. केड पर एक मुसलमान नवाब का अधिकार था. पिता की इस इच्छा को सुनते ही जुझार सिंह जी ने शस्त्र संभाले और धावा बोलकर केड पर अपना दबदबा कायम कर दिया. पिता की इच्छा को पूर्ण कर के जुझार सिंह लौटे, उस समय उनके पिता टोडरमल जी स्वर्ग के वासी हो चुके थे.

उन्होंने अंतिम इच्छा पूर्ण करने वाले जुझार सिंह को भी कृपा का प्रसाद चिन्ह अपनी ढाल तलवार देने की आज्ञा लेकर संसार को छोड़ा था. किंतु उनके अन्य भाइयों को यह सहन नहीं हुआ. उन्होंने इसका विरोध किया, इसका पता जुझार सिंह को लग गया. और उन्होंने अपने ही पिता की ढाल तलवार को धारण कर लिया. दिल्ली बादशाह के पास जाकर खंडेल पर खालसा उठाने के उद्योग में सफल हुए थे. उन्होंने कितनी ही लड़ाइयों में विजय पाई थी.

जुझार सिंह जी के पुत्र और उनके ठिकाने

उनके 18 पुत्र हुए जो इस प्रकार हैं.

१ मुकुंदसिंह जी, २ मूनसिंह जी, ३ दीपसिंह जी ४ रुपसिंह जी ५ भगोतसिंह जी ६ जगरामसिंह जी ७ सूरतसिंह जी ८ सरदारसिंह जी ९ सावंतसिंह जी १० साहब सिंह जी ११ प्रेमसिंह जी १२ महासिंह जी (मान सिंह जी) १३ हेम सिंह जी (अभय सिंह जी) १४ किशोर सिंह जी १५ संगत सिंह जी १६ सुरतान सिंह जी १७ जगतसिंह जी १८ राम सिंह जी.

इनमें मुकंद सिंह जी के वंशज इस समय चिराना, छापोली, गुड्डा, सेफरागवार, चोंचडोली, टोरडा, किरोडी और लोहाघर में. मूल सिंह के उदयपुर, टिटनवाङ, खुदानिया, दीपपुरा और झेरैली में. दीपसिंह जी दूसरे के रसूलपुर, टूंडया, भरवाडी, गुड्डा, मनीपुरा और नंगली में. रूपसिंह जी के पापड़ा, अहुवणा, गुढ़ा, बागोली, छावसरी, भोजगढ़ आदि में था. भगोत सिंह जी के गुड्डा, नांगल और पुंख और माणकसास में. सूरतसिंह जी के बड़ागांव, डाबड़ी और भोज नगर में. सरदार सिंह जी के इंद्रपुरा, बागोरा, रघुनाथपुर में. प्रेम सिंह जी के टोंक में, महासिंह जी (मान सिंह जी) के बड़ागांव, डाबड़ी आदि में. हेमसिंह (अथवा अभय सिंह जी) के बड़ागांव में, किशोर सिंह के नेवरी, किशोरपुरा, गुढ़ा,उदयपुर और ककराना में. जगराम सिंह जी के वृतांत आगे लिखा जाएगा। इनके अतिरिक्त अन्य सब कृतिशेष हो गए. दीपसिंह जी ने हरिपुरे की लड़ाई में वीरगति पायी थी.

जगराम सिंह जी

राव झुझार सिंह जी के 18 पुत्रों में एक थे जगराम सिंह जी. जगराम सिंह जी को उदयपुरवाटि का आधा और गुढ़ा का आठवां भाग मिला था. जगराम सिंह जी के दो पत्निया थी. एक कान्हलोतजी, दूसरी तंवर जी, कान्हलोत जी के गर्भ से उनके पुत्र कुशालसिंह जी, गोपालसिंह जी और सुखसिंह जी हुए, तंवर जी के गर्भ से शार्दुलसिंह जी और सलहदसिंह जी हुए. कुशालसिंह जी के वंशज इस समय बडाऊ गांव में, गोपालसिंह जी के केड गांव और वामलाबास में तो सुखसिंह जी के पचलंगी, कोट सराय आदि में है. सलहदसिंह के वंशज सलहद जी के नाम से विख्यात है और खिरोड़, मोनवाड़ी, जाखल, नागली, मझावू, देउता, खरब आदि में है. सलहदसिंह जी के वंशजो की शेखावाटी में बड़ी घाक रह चुकी है.

शार्दुल सिंह शेखावत

शार्दुल सिंह शेखावत कुल के शिखर थे. प्रताप और वीरता में उन्हें यदि दूसरा रायमल जी कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी. उस समय आमेर के राज्य आसन पर वैदिक कर्मकांड और ज्योतिष के परम विद्वान महाराज सवाई जयसिंह द्वितीय थे. जिन्होंने शिल्पचातुरी का विलास स्थल जयपुर नगर बसाया था. मुगल शासन का सूर्य अपना पूर्ण प्रकाश दिखाकर अस्त हो रहा था. मराठा शक्ति भारतवर्ष को विकम्पित कर रही थी. उस समय सादुल सिंह ने अपनी वीरता के हाथ दिखाए. उन्होंने कायमखानी नवाब रूहेलखा से झुंझुनू लिया था. नवाब को शासन करने में असमर्थ देखकर उनके कितने ही मालगुजारो ने सिर उठा लिया था. उस समय लाचार होकर नवाब को शार्दुल सिंह के हाथों झुंझुनू का शासन सूत्र सोपना पड़ा.

राव शार्दुल सिंह के ससुर कुल के संबंध से नवाब की ग्रहणी उनकी वीरता से परिचित थी. शार्दुल सिंह ने अपने वीर पुत्रों और भाई बंधुओं की सहायता से स्वाअधिकार स्थापन कर झुंझुनू पर अपनी पताका फहराया थी. झुंझुनू को कर भरने का विद्रोही बने हुए, बड़वासी के मानुल्लाखा ने बड़ा उत्पात मचा दिया था. शार्दुल सिंह शेखावत ने उसका दमन बात ही बात में कर दिया. इसके अतिरिक्त उन्होंने सीकर नरेश राव शिवसिंह जी को फतेहपुर पर अधिकार स्थापना में सहायता की थी. वर्तमान शेखावटी प्राय कायमखानी का ही कब्जा था. कायमखानी उठती हुई शेखावत शक्ति को दबाने न सके.

यद्पि दबाने के कई संगठित प्रयास किये, लेकिन निदान विजय शेखावत ही हुए. और कायमखानी को अपने सदियों के जमाए हुए राज्य से हाथ धोने पड़े. शाही सूबेदारों के पद पर उस समय जयपुर प्रतिष्ठा परम नीतिकारी वही महाराज सवाई जयसिंह थे. उनके कौशल से शेखावाटी के स्वतंत्र जीवी शार्दुल सिंह शेखावत और सीकर के राजा शिवसिंह जी जयपुर के झंडे के नीचे आ गए.

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FAQs

Q- शेखावाटी में कोनसे कोनसे जिले आते है?

Ans- शेखावाटी राजस्थान में झुंझुनू, सीकर, चूरू और कुछ भाग नागौर जिले का भी आता है.

भारत की संस्कृति

2 thoughts on “History of Shekhawati | शेखावाटी का इतिहास, महाराव शेखाजी

  1. Harendra Singh

    As per information received from elders Bhojnagar साहेब सिंह जी का है

    Reply
    1. Team UniInfos Post author

      भोजनगर सरदार सिंह जी का है सर , और में इस पर रिसर्च करूँगा

      Reply

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